Thursday, May 22, 2014

कमाल की औरतें _ तीसरी कविता ......

ये औरतें अपनी ख़राब तबियत को टालती हैं 
जितना हो सकता है परशानियाँ पालती हैं 
फिर झल्लाकर कभी उसे महीन चलनी से छानती हैं 
जीतनी छन जाती है उतने से ही घर के काम निपटाने लगती हैं 
जीतनी छन्नी के ऊपर होती है वो अक्सर कुछ स्थूल चीज़े होती हैं 

जैसे उनके मन सपने अपनी बातें दुःख दर्द 
ये उसे घर के कूड़ा कचरे के साथ बाहर वाले घूरे पर डाल आती हैं 

ये कम ही बची रहती हैं
पर काम पुरे करती हैं
औरतें अपने जीवन के सबसे सुन्दर समय में
उठाती है घर की जिम्मेवारी
जनती है बच्चे करती हैं परवरिश
ये बीत गये उम्र की औरतें रीत जाती हैं घर की घर में

इनकी आँखों के इर्द गिर्द धूप जमा होती हैं
पर ये देखने लगती है पहले से कम

ये नही भूलती अपनी पहली कविता की डायरी
४०० की बाधा दौड़ की ट्रोफी ये नही भूलती अपनी गुडिया
अपना खेल अपने बच्चो के साथ अपने बचपन को दुहराती है
अपने गुड़ियाँ की हंसी देख अपने आप को बिसर जाती है

आग हवा पानी मिटटी से बनी औरते रोज़ देती है चुनौती आग को हवा को पानी को
ये कमाल की औरते जितना बचती हैं उतने से ही रचती है इतिहास
तुम्हारे बॉस के फिरंगी रंगों की औरतों के सामने जब नजर नीची किये तुम बताते हो
ये बस हाउस वाइफ हैं तभी मैं चीख कर कहना चाहती हूँ
जिस बावन रंग के खाने को अभी अभी तुम सब डकार गये
उसके बनाने में मीट गई हूँ खड़ी हूँ एक पैर पर कि खिलाऊं तुम्हारे मेहमानों को एक शानदार डिनर की तरक्की के बेचैन सपनों को मिले विराम

महीने में खून की पट्टियाँ बदलती औरते आदी है दर्द की पट्टियाँ बदल लेती हैं
घूमती धरती पर जम कर खड़ी है तुम्हारी दीवारों में घुली है गारे मिटटी की तरह
तुम्हारे बिस्तर पर तुम्हारी चाह बनकर

और तुम कहते हो कमाल की औरते है
दिन भर घर में पड़ी रहती है.. खाती है मोटाती हैं
शाम को बेहोश पसर जाती हैं
ना कहीं आती हैं ना जाती हैं ...............शैलजा पाठक

Tuesday, February 11, 2014

इमरती मौसी ...

तो कथा यूँ निकली की सूत जी कहते हैं..की आखिरी अध्याय भी मन लगा कर अगर सुन लिया जाए तो भरसक कल्याण ही होता हैं ...

भीड़ के पिछले लाइन में बैठी इमरती मौसी ओघाती सी जाग गई..अब हाथ में अक्षत दूब लिए सजग हो के बैठ गई ..आखिरी अध्याय पूरा सुनना है आज.....

इमरती मौसी के जिनगी में सत्न्रायण भगवान की पूजा का आलम ऐसा की मुहल्ला टोला जहाँ से भी शंख बजने की आवाज सुनी नही की भाग पड़ी साड़ी सम्भारती..आखिरी अध्याय पर मन का मुराद जो पूरा हो जाए की गारंटी ....मौसी के दुःख की कहानी इतनी पुरानी की की बात अब सांत्वना से ज्यादा हंसने की हो गई थी ..मुहल्ले के बच्चे तक चिढाने लगे अरे मौसी बड़का टोला में पूजा शुरू होने वाला है ..कहो मौसी आज आँख खोले रहू की नाही पूजा मा...मौसी आखिरी अध्याय तक जागत रहिया..तोहार मुराद पूरा होई जाई..सूत जी कहत रहें.....पीछे फब्तियां खिलखिलाहटें .....

चकरघिन्नी सी इमरती मौसी दूब अक्षत चुटकी में पकड़े सच पागल के जैसे भागती रही ..घर वापस आते हहरा कर गिर जाती अपनी खटिया पर ..मटमैले तकिया के नीचे से हाल्फ निकर पहनी एक पीली पड़ गई तस्वीर निकालती कलेजे पे ओढती और आँख बंद कर बडबडाती ..बरसोंसे रो रही आँखों में भी पानी ना कम हुआ .

.इकल्ली पड़ी रहती घर में ..तेल मालिश का काम करती....सभी नवजात को ऐसे हसरत से देखती जैसे उनका मुन्ना हो .....इन बेगानी मुस्कराहट में इमरती मौसी ने अपनी जिंदगी तलाश ली थी ..मुहल्ले के सभी सौरी का काम यही संभालती ..टुकुर मुकुर आँखों से निहाल करते से बच्चे ..मौसी की ममता आसमान ...आँचल में तरह तरह का तेल महकता उबटन से आज ही मली गई नन्ही सी बच्ची की कोमल देह बसी सी होती ..मुठ्ठी भर लाल मिर्चा लेकर कभी ई बच्चा कभी उ बचवा का नजर उतरती मौसी निहाल हुई घुमती रहती मुहल्ला मुहल्ला.......

अकेले घर की दीवारों से टिक कर मौसी कलेंडर में टंगे भगवान् को खूब खरी खोटी सुनाती ..छाती सूख गई ..कलेजा मुंह को आ जाता की कैसे पाँच बरस का बेटा गंगा नहाने गई मौसी के आँख झपकते ही ऐसा ओझिल हुआ की कभी ना दिखा ..आह ..

हवा से तेज भागी रही मौसी ...सौ सौ आँख लगाकर चारो तरफ खोजा शीतला मैया के सीढि पर माथा पटकती रही ..जिंदगी का एकही सहारा है मैया रानी..ऐसा नाही कर सकती......कहते हैं उस शाम मौसी की चीख से डरता सा अँधेरा देर से उतरा..गंगा उदास सी बही.... किसी घर से नही आई लोरी की आवाज ..बच्चे चिहुकते रहे .....

मौसी को बेहोशी की हालत में घर लाया गया ..कुछ दिन बीते ..पर दर्द ना बीता.......जमीन पर लाश सी पड़ी रहती है मौसी की ....

आती है शंख की आवाज..अरे बुढा भागो अक्षत दूब लेकर... पूजा शुरू होवेवाला है...तोहार लरिका मिल जाई ......मौसी के अचरा में तेल महक रहा है मौसी भाग रही है ..और मुन्ना...............................अचरा फैला के मांग रही है मौसी अपना मुन्ना...हथेली में चटचटा रहा सत्नारण पूजा का चरणामृत ...
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Wednesday, February 5, 2014

कमाल की औरतें हैं

.... औरतें भागती गाड़ियों से तेज भागती है 
तेजी से पीछे की ओर भाग रहे पेड़ 
इनके छूट रहे सपनें हैं 
धुंधलाते से पास बुलाते से सर झुका पीछे चले जाते से 
ये हाथ नही बढाती पकड़ने के लिए 
आँखों में भर लेती है जितने समा सकें उतने 

ये भागती हिलती कांपती सी चलती गाडी में ..जैसे परिस्थितियों में जीवन की 

नीकाल लेती है दूध की बोतल ..खंखालती है 
दो चम्मच दूध और आधा चीनी का प्रमाण याद रखती है
गरम ठंढा पानी मिला कर बना लेती है दूध
दूध पिलाते बच्चे को गोद से चिपका ये देख लेती है बाहर भागते से पेड़
इनकी आँखों के कोर भींग जाते हैं फिर सूख भी जाते है झट से

ये सजग सी झटक देती है डोलची पर चढ़ा कीड़ा
भगाती है भिनभिनाती मक्खी मंडराता मछ्छर
तुम्हारी उस नींद वाली मुस्कान के लिए
ये खड़ी रहती है एक पैर पर

तुम्हारी आँख झपकते ही ये धो आती आती है हाथ मुंह
मांज आती है दांत खंघाल आती है दूध की बोतल
निपटा आती है अपने दैनिक कार्य
इन जरा से क्षणों में ये अपनी आँख और अपना आँचल तुम्हारे पास ही छोड़ आती हैं

ये अँधेरे बैग में अपना जादुई हाथ डाल
निकाल लेती है दवाई की पुडिया तुम्हारा झुनझुना
पति के जरुरी कागज़ यात्रा की टिकिट
जिसमे इनका नाम सबसे नीचे दर्ज है

अँधेरी रात में जब निश्चिन्त सो रहे हो तुम
इनकी गोद का बच्चा मुस्काता सा चूस रहा है अपना अंगूठा
ये आँख फाड़ कर बाहर के अँधेरे को टटोलती हैं
जरा सी हथेली बाहर कर बारिश को पकड़ती है
भागते पेड़ों पर टंगे अपने सपनों को झूल जाता देखती हैं
ये चिहुकती हैं बडबडाती है अपने खुले बाल को कस कर बांधती है
तेज भाग रही गाडी की बर्थ नम्बर ५३ की औरत

सारी रात सुखाती रही बच्चे की लंगोट नैपकिन खिडकियों पर बाँध बाँध कर
भागते रहे हरे पेड़ लटक कर झूल गए सपनों की चीख बची रही आँखों में
भींगते आंचल का कोर सूख कर भी नही सूखता
और तुम कहते हो की कमाल की औरतें हैं
ना सोती है ना न सोने देती हैं
रात भर ना जाने क्या क्या खटपटाती हैं ...............

Thursday, January 23, 2014

बाबा का गमछा

बाबा बाहर की चौकी पर ध्यान रमा कर बैठते ..मुझे पता था किसी चौपाई पर नही ठहर रहा है उनका मन ..घर में क्या बन रहा..कौन आया..बातें क्या हो रही हैं...चाय बनी थी क्या फिर से...वो इन बातों का जबाब चाहते ..मैं हूँ ना बाबा बन की तितली.इधर उधर सारी बातों का सामान्य गूढ़ पिटारा..मेरे हाथ हमेशा मिटटी से भरे होते..और बाबा की आँख इंतजार से..मेरे पास जाते ही अपने गमछे का एक हिस्सा चौकी पर मेरे लिए बिछा देते ..

अपनी धोती के कोने से मेरा हाथ पोछते फिर अपनी आँख ..का बाबा ?? एगो गीत गइबे...मैया मोरी मैं नही माखन खायो ..अभिनय के साथ ..बाबा विभोर हो मेरा नादान अभिनय देखते..मैं बताती बाबा जब लाल नीला लाइट पड़ता है ना तब कान्हा का मुकुट खूब चमकता है..स्कूल के स्टेज की बात...पर बिना लाइट बाबा की आँख चमकती..उनके गमछे को कमर में बाँध एक छोटा सा लकड़ी उसमे खोंस जब मैं उनकी तरफ फेंकती..ये लो अपनी लकुटी कमरिया..तब बाबा हाथ फैला देते..ऐन्गा ना रिसियाए के बाबू....अब मुस्कराती चौकी पर बाबा ताली बजा कर मेरे गाने को कसम से बेसुरा गाते..बाबा ऐसे नही ऐसे नही...

गमछे ने बाबा का खूब साथ निभाया..कभी बिस्तर बना कभी पगड़ी..कभी कमर में बंधा कभी सर पर..कभी दाना से भरा कभी सब्जी से कभी हम सोये मिलते उसके नीचे ऊपर बाबा की थपकी..गाँव की मिटटी धीरे धीरे झर चुकी थी ..अब कुछ कहानियां बची थी उनके जेहन में वो भी रूठी सी रास्ता विषय सब भूल जाती ..

हमारे बुजर्गों के पास उनके अनुभव की अकूत सम्पत्ति है ..उनकी कहानियां इस लिए भूल जाती है रास्ता की हम सुनते ही नही कभी बैठकर ..की समय नही.बकबक कौन सुने..वही वही बात...हम भी उसी पटरी से अपने उसी उम्र की गाडी से गुजरेंगे..हवा से कोई पुराना गमछा जो पास उड़ आये तो समेट लेना..उसमे कहानियां हैं.भजन है..बाबा की ताली की आवाज है..मिटटी की महक है..और उनकी आँख की रौशनी है..जो धीरे धीरे बहती थी..जिसे बाबा छुप कर पोंछ लेते थे ....

.एकांत में बाबा ने सुनाई थी घर खेत छप्पर अटीदार पाटीदार की कहानी...आज अपने एकांत के पन्नो पर लिखते हुए समझा मैंने.....
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Monday, December 23, 2013

वही मैं वही तुम ..

दर्द को कूंट रही हूँ 
तकलीफों को पिस रही हूँ 
दाल सी पीली हूँ 
रोटी सी घूम रही हूँ 
गोल गोल 
तुम्हारे बनाये चौके पर 

जले दूध सी चिपकी पड़ी हूँ 
अपने मन के तले में 
अभी मांजने हैं बर्तन 
चुकाना है हिसाब
परदे बदलने हैं
आईना चमकाना है
बिस्तर पर चादर बन जाना है
सीधी करनी है सलवटें

बस पक गई है कविता
परोसती हूँ

घुटनों में सिसकती देह
और वही
चिरपरिचित तुम ...........

Monday, December 9, 2013

लेखक का एकांत

एक मछली थी ...पानी में फडफडाती सी...रेत पर तडफडाती सी ..जरा सी आँख में डबडब पानी .छोटे से पंख से पानी काटती ..फिसल कर संभलती..संभल कर चलती की फांस ली जाती ..दुखी हो जाती...

पानी का ओर छोर नापना था...उस कम्बखत डोर से बचना था ...अब जान बचे ना बचे ..कोई आखिरी इक्षा है तो बता दे ..मछली बोली उड़ना चाहती हूँ ..जंगल के ठीक ऊपर से ..सुना बड़ा घना होता है ..कोई खो जाए तो मिलता नही ..जानवरों से भरा है..अगर है तो ऐसा ..मुझे उड़ने दो...बचा जंगल रोने लगा ..अतीत की जड़ें भिगोने लगा..मछली की आवाज से सब चकित थे...पहले बस चमकती भर थी..जीने भर को जीती थी..अब बोलने भी लगी...

अच्छा एक बार भरी नदी में डूबना है ..नदियाँ रेत में समां गई रेत हवा के साथ उड़ गया...अब ? एक पूरा नीला आसमान ही दिखा दो ...तकलीफों के बादल छाये थे..कहते है दूर देश से पानी लाये थे..किसानों के आँख से बरसे ..पर हरी भरी धरती को तरसे ..किसी और एरिया ने खरीद लिया था उन्हें...मछली उदास हो गई ...

मछली की बिंधी देह से आसमान उतार लिया गया..उसके आँख की नदी में सूख गये सपने..इंसानी जंगल की भीड़ में तुम जानवर बने ..मछली ने बोलना बंद नही किया..सुना बड़े तेवर है..जख्मी हो तो पानी लाल हो जाता है..पर उम्मीदें आसमानी हैं इसकी ...बची हुई मछलियों को कम करने की होड़ में वो अपनी ताकत गँवा रहे हैं..और इंसानियत का नया इतिहास बना रहे हैं....

.एक मछली थी ...अब बिजली से चलती है..कटोरे भर पानी में ...सब मूक दर्शक....मुरझाये पत्तो का एकांत.. बसंत की आस ...

Tuesday, December 3, 2013

लागा झुलनियाँ क धक्का ...

कभी तुमपे कभी हालात पे रोना आया..बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया ...

बाभन टोला के छत से आसमान जरा नजदीक दिखाई देता ...बड़ी दूर नाच की आवाज हवा में तैरती सी छत पर रुक जाती..."लागा झुलनियाँ क धक्का बलम कलकत्ता पहुच गए "बुआ देर रात तक जागती दूर से आ रही मध्धिम पड़ती रोशनी की एक डोर उनतक पहुचती..बुआ वही थामे ना जाने कौन दुनियां में विचरती..बुदबुदाती ..अपने लम्बे बालों में कटोरी भर तेल मलती ..और बिखरी सी सो जाती ...

सबकी लाडली रहीं बुआ ..जो मांगती आ जाता ..शहर से आया कपडा सिलाती..ऊँची एडी का चप्पल भी मंगावती शहर से ..नये फैशन का बैग ..और रेशम के पक्के रंगों का धागा... ....अब गाँव में लड़की के बड़े हो जाने का अपना पुराना तर्क हुआ करता ...शादी की सुगबुग पढाई का छुडवा दिया जाना..लड़के की तलाश ..घर का रंगरोगन ..और उस लड़की की विदाई जो अभी चहकती सी आपके आँगन में फर्गुदियाँ सी उछलती कूदती रही ...

बीस साल बड़े रहे अवधेश फूफा ...घर के बड़े ..अपना पक्का घर ..इकलौती संतान ..बड़ी मूंछ..तगड़ी काठी ..और इधर इत्ती सी जान की बुआ ..बिना किसी विरोध शादी हो गई ..बुआ के फ़िल्मी दुनियां वाली ढेरों पत्रिका पड़ी की पड़ी रह गई..जिसमे देखती रही बुआ अपना हीरो सा राजकुमार ...

हम बच्चे थे तब जब आँगन में अपनी पियरी में बुआ शादी के पीढ़े पर बैठी ..आँगन की सारी औरते फुसफुसाती सी कहती रही..बाप सामान दूल्हा खोज लाये बाबा ..घुघट की ओट से बुआ भी अपने दूल्हा को देख सकपका गई थी..बलि का बकरा ..मेरे गाँव की ये सबसे दुखद शादी थी ...जब पहली विदाई पर बुआ ने अपना विरोध जताया ..किसी ने उनकी नही सुनी..अगली साईंत आने तक बुआ चादर तकिया में फूल काढती रही..रोज शंकर जी को जल चढाती रही..कुआँ पर बैठकर घंटों अपनी सखियों को अपना दुखड़ा सुनाती..सारा दिन इधर उधर के घरों में जा के कॉपी भर गाना लिखती रहती..बन्ना बन्नी सोहर कजरी..चैता ..

विदाई का साईंत बन गया तारीख सुना दी ठाकुर मंदिर के पुजारी ने ..बुआ का झांपी सजाया जाने लगा..हल्दी लगाने वाली नाउन रोज़ आने लगी ...बुआ को जैसे बिच्छू घास छू गया...बड़ी बड़ी आँखों में दूर दूर तक सुखा पडा रहता ..गाने की कॉपी में आखिरी पन्नो पर विदाई गीत लिखती बुआ अपने खटिया से लग के रो पड़ती..अम्मा का आँखें क पुतरिया..भैया से जल्दी बुलाने की गुहार ..बाबा से आम का पेड़ मत काटने की मिन्नत करती बुआ.

.बैलगाड़ी पर एक कोने में सिसकती गाँव के उसी रास्ते से विदा हो रही थी..जिसपर अपना दुपट्टा फहराती अपनी सखियों के साथ खेत में मटर तोड़ती..कैरी खाती ..और नचनियां के याद किये गाने पर ठुमका लगाती ..."लागा झूलानिया क धक्का बलम कलकत्ता पहुच गये
'
'..तेज खिलखिलाहट ...तेज रौशनी की किरण..उसकी डोरी थामे बुआ ..सारी रात जागती सी क्या बोलती थी...कोई कभी ना जाना ..बुआ के पेट पर लेटे बैठे हम खेलते रहे घुघुवा मामा उपजे धामा....हम अनजान थे बुआ ..कभी नही समझ पाए ..तुम वो राजा रानी की कहानी में उस बिचारी राजकुमारी का जीकर आते क्यों मन भींगा लेती..वो तुम ही थी ना ??