कमाल की औरतें _ तीसरी कविता ......
ये औरतें अपनी ख़राब तबियत को टालती हैं
जितना हो सकता है परशानियाँ पालती हैं
फिर झल्लाकर कभी उसे महीन चलनी से छानती हैं
जीतनी छन जाती है उतने से ही घर के काम निपटाने लगती हैं
जीतनी छन्नी के ऊपर होती है वो अक्सर कुछ स्थूल चीज़े होती हैं
जैसे उनके मन सपने अपनी बातें दुःख दर्द
ये उसे घर के कूड़ा कचरे के साथ बाहर वाले घूरे पर डाल आती हैं
ये कम ही बची रहती हैं
पर काम पुरे करती हैं
औरतें अपने जीवन के सबसे सुन्दर समय में
उठाती है घर की जिम्मेवारी
जनती है बच्चे करती हैं परवरिश
ये बीत गये उम्र की औरतें रीत जाती हैं घर की घर में
इनकी आँखों के इर्द गिर्द धूप जमा होती हैं
पर ये देखने लगती है पहले से कम
ये नही भूलती अपनी पहली कविता की डायरी
४०० की बाधा दौड़ की ट्रोफी ये नही भूलती अपनी गुडिया
अपना खेल अपने बच्चो के साथ अपने बचपन को दुहराती है
अपने गुड़ियाँ की हंसी देख अपने आप को बिसर जाती है
आग हवा पानी मिटटी से बनी औरते रोज़ देती है चुनौती आग को हवा को पानी को
ये कमाल की औरते जितना बचती हैं उतने से ही रचती है इतिहास
तुम्हारे बॉस के फिरंगी रंगों की औरतों के सामने जब नजर नीची किये तुम बताते हो
ये बस हाउस वाइफ हैं तभी मैं चीख कर कहना चाहती हूँ
जिस बावन रंग के खाने को अभी अभी तुम सब डकार गये
उसके बनाने में मीट गई हूँ खड़ी हूँ एक पैर पर कि खिलाऊं तुम्हारे मेहमानों को एक शानदार डिनर की तरक्की के बेचैन सपनों को मिले विराम
महीने में खून की पट्टियाँ बदलती औरते आदी है दर्द की पट्टियाँ बदल लेती हैं
घूमती धरती पर जम कर खड़ी है तुम्हारी दीवारों में घुली है गारे मिटटी की तरह
तुम्हारे बिस्तर पर तुम्हारी चाह बनकर
और तुम कहते हो कमाल की औरते है
दिन भर घर में पड़ी रहती है.. खाती है मोटाती हैं
शाम को बेहोश पसर जाती हैं
ना कहीं आती हैं ना जाती हैं ...............शैलजा पाठक
ये औरतें अपनी ख़राब तबियत को टालती हैं
जितना हो सकता है परशानियाँ पालती हैं
फिर झल्लाकर कभी उसे महीन चलनी से छानती हैं
जीतनी छन जाती है उतने से ही घर के काम निपटाने लगती हैं
जीतनी छन्नी के ऊपर होती है वो अक्सर कुछ स्थूल चीज़े होती हैं
जैसे उनके मन सपने अपनी बातें दुःख दर्द
ये उसे घर के कूड़ा कचरे के साथ बाहर वाले घूरे पर डाल आती हैं
ये कम ही बची रहती हैं
पर काम पुरे करती हैं
औरतें अपने जीवन के सबसे सुन्दर समय में
उठाती है घर की जिम्मेवारी
जनती है बच्चे करती हैं परवरिश
ये बीत गये उम्र की औरतें रीत जाती हैं घर की घर में
इनकी आँखों के इर्द गिर्द धूप जमा होती हैं
पर ये देखने लगती है पहले से कम
ये नही भूलती अपनी पहली कविता की डायरी
४०० की बाधा दौड़ की ट्रोफी ये नही भूलती अपनी गुडिया
अपना खेल अपने बच्चो के साथ अपने बचपन को दुहराती है
अपने गुड़ियाँ की हंसी देख अपने आप को बिसर जाती है
आग हवा पानी मिटटी से बनी औरते रोज़ देती है चुनौती आग को हवा को पानी को
ये कमाल की औरते जितना बचती हैं उतने से ही रचती है इतिहास
तुम्हारे बॉस के फिरंगी रंगों की औरतों के सामने जब नजर नीची किये तुम बताते हो
ये बस हाउस वाइफ हैं तभी मैं चीख कर कहना चाहती हूँ
जिस बावन रंग के खाने को अभी अभी तुम सब डकार गये
उसके बनाने में मीट गई हूँ खड़ी हूँ एक पैर पर कि खिलाऊं तुम्हारे मेहमानों को एक शानदार डिनर की तरक्की के बेचैन सपनों को मिले विराम
महीने में खून की पट्टियाँ बदलती औरते आदी है दर्द की पट्टियाँ बदल लेती हैं
घूमती धरती पर जम कर खड़ी है तुम्हारी दीवारों में घुली है गारे मिटटी की तरह
तुम्हारे बिस्तर पर तुम्हारी चाह बनकर
और तुम कहते हो कमाल की औरते है
दिन भर घर में पड़ी रहती है.. खाती है मोटाती हैं
शाम को बेहोश पसर जाती हैं
ना कहीं आती हैं ना जाती हैं ...............शैलजा पाठक