Thursday, July 4, 2013

खूंटे से बंधा आसमान

भींगे गत्ते से 
बुझे चूल्हे 
को हांकती 
टकटकी लगाये ताकती 
धूवें में आग की आस 

जनम जनम से बैठी रही इया 
पीढ़े के ऊपर 
उभरी किलों से भी बच के निकल 
जाती है 

धीमी सुलगती लकड़ियों में
आग का होना पहचानती है
हमारी गरम रोटियों में
घी सी चुपड जाने वाली इया

घर की चारदीवारी में चार धाम का पुण्य कमाती
भींगे गत्ते को सुखाती
हमेशा बचाती रहीं
हवा पानी आग माटी
और अपने खूटे में बंधा आकाश ....

2 comments:

  1. Replies
    1. मै जानती हूँ लोगो की हकिकत सभी
      ये जुबा है की कुछ भी कहती ही नहीं
      इश्क है और इश्क पे जाँ भी निसार
      कमबख्त जाँ है की निकलती ही नहीं

      http://anusamvedna.blogspot.in/2013/04/blog-post_29.html

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