उलाहना ..हमेशा ..घर के अन्दर का परायापन सालता है ..अपने हो ना ..हक से कहो जो चाहते हो कहना .बेजुबान गाय बाँध ली हो जैसे ...बदलते समय में सोच का मानचित्र जरा कम तेजी से बदल रहा है ..उसी पुरानी परिपाटी पर तुम आवाज लगाओ की सामने आ जाऊं मैं ..तुम्हारी तरेरती आँखें से सारा दिन डरी रहूँ की क्या गलत हो गया...जिंदगी जीने के हक का बंटवारा नही किया कभी किसी ने आधा आधा ..जगह दो समय दो इज्जत एक दुसरे के काम के नाम को..सराहो जरा .
.मन के अन्दर टूटने वाले शीशे हर रोज गडते हैं ..उसके नुकीली किरचों से बच पाना आसान नही..मैं अपनी पहचान हो तड़पती रहूँ तुम घर के दरवाजे बंद कर दो ..मैं जा सकती हूँ..जिंदगी जीने का हुनर है मुझमे ..सिखा है..पर साथ ये भी की सब संभाल कर भी तो वो करू जो चाहती हूँ करना ..पल्लू से बंधा बच्चा जीने की वजह भी है बंधे रहने की वजह भी ..हमारे बिच कितना कुछ टूट जाता है .पर जीते हैं हम घर के भरम में ...
.(तमाम घरों का शून्य बोलता है मेरे एकांत में . )
.मन के अन्दर टूटने वाले शीशे हर रोज गडते हैं ..उसके नुकीली किरचों से बच पाना आसान नही..मैं अपनी पहचान हो तड़पती रहूँ तुम घर के दरवाजे बंद कर दो ..मैं जा सकती हूँ..जिंदगी जीने का हुनर है मुझमे ..सिखा है..पर साथ ये भी की सब संभाल कर भी तो वो करू जो चाहती हूँ करना ..पल्लू से बंधा बच्चा जीने की वजह भी है बंधे रहने की वजह भी ..हमारे बिच कितना कुछ टूट जाता है .पर जीते हैं हम घर के भरम में ...
.(तमाम घरों का शून्य बोलता है मेरे एकांत में . )
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