आसमान का नीला रंग बड़ा सुहाना लगता था .बचपन में जिंदगी के सारे रंग चटकीले लगते थे .सिर्फ गुरु जी
की डांट से जो मोटे आंसू निकलते हमारे काजल से गाल काले हो जाते थे ..अब गाल गोरे बचे रहते है पर
आसमान सावंला हो जाता है ..महानगर की सातवीं मंजिल की एक जरा सी खुलने वाली खिड़की से जिंदगी
टिमटिमाती सी भी नही दिखती..जब बारिश थम जाती ..जरा धूप चमकती ..हम भागते हुए गाँव के बगीचे तक
जाते ..वही किसी दिशा में दिख जाता इन्द्रधनुष .ओह ..कितना करिश्माई होता वो पल ..अपनी कला की काँपी
में हम बड़े जतन से इन्द्रधनुष बनाते .वो मोम वाले रंग को घिस घिस कर ..
जिंदगी सिमट गई है ..फ़ोन के परदे पर दुनिया के सारे रंग आपके उँगलियों के इशारे नाचते है .बस माटी की
महक चली गई ..भाग कर दिशाओं को देखने की यात्रा ख़तम हो गई ..तालाब का हरा होना याद है ?जिसके
किनारे मकोय के जंगल होते थे ..अब किसी गूगल सर्च में हम नही होंगे ..बेर को अपनी फ्रोक में धरे ..राख पड़ी
ढेर से होरहा चुनने की तेजी अब किसी सर्च इंजन में नही ..वो जिंदगी के रंग थे ..असली ..खालिस ..बसवारी के
भूत ने सब लील लिया क्या ?
तालाब का हरा होना याद है ?जिसके
ReplyDeleteकिनारे मकोय के जंगल होते थे
यादों मे भी इतनी हूक हो सकती है ... अब महसूस किया... सब छूट गया है बहुत दूर... जिस पगडंडी पर हम पुराना टायर दौड़ाया करते थे ... आज वहाँ डामर रोड बन गयी है... मगर धुरियाए पैरों से काँटा काढ़ने की टीस अब कहाँ नसीब है;
shukriya padm singh n bhai tumhraa bhi
DeleteSetting मे जा कर वर्ड टिप्पणी से वर्ड वेरिफिकेशन का आप्शन हटा दें... टिप्पणी मे दिक्कत होती है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति जीजी .....
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