उम्मीद
बुझ रहे जंगल
जल रही है नदी
प्यास से बिलखती धरती
असहाय होते समय को
ढाढस बंधाती
गहरे हुए कोटरों से झांकती
किसान की ..बादलों पर
टिकी आँखें ....
ख़ामोशी
चमचमाती थाली में
चेहरा देखा
और बुदबुदाई
तुम खामोश हो
हम कर दिए जाते हैं
थाली में उभरी एक जोड़ी
आँखें धुंधला गई
मैंने सूखे कपडे से गीली थालियों को
सूखा कर सजा दिया ...
मोती
समन्दर के
रेतीले विस्तार पर
पड़े कुछ मुर्दा नामों को
लहरें गले लगाती हैं
और वो सीपियों में
मोतियों से
चमक उठते ...
माँ
तेरे पल्लू में
एक गाँठ बंधी होती
उस गाँठ में हमारी
खुशियाँ
दुधिया आसमान को
हम उचक कर पकड लेते
और तुम्हारे आँचल में
छुपा देते थे
फिर एक दिन तेज आंधी में
उड़ गया फडफडाता आँचल
समय के उघडे बदन पर
खूब जखम मिले
सब छुपा लिया ना तुमने ?
बसंत
हर तिनके में
फडफडाता है
पतझड़
बसंत पीसता है
दो पाटों के बीच
समन्दर में लुप्त हो
जाती है मीठी नदी
सब जीते है मिलन के पल
विछोह के बवंडर के साथ साथ ....
पानी
तालाब में जिन्दा
बची मछलियाँ
अब पानी बचाएंगी
उनकी बड़ी गोल
आँखें
बड़ी गहरी होती हैं .....
हार
हरे दिखने वाले
पेड़ की
मजबूत दिखने वाली
डाली से
एक दिन
सूखे पत्तो सी गिरूंगी
समय से पहले हुई मौत
की देंह में जिन्दा होगी
छाँव सी हरी कोपलें
उनकी खुली आँखों को
धीरे से बंद कर देना
वो मेरे साथ मरना चाहती हैं ...
बुझ रहे जंगल
ReplyDeleteजल रही है नदी
प्यास से बिलखती धरती
असहाय होते समय को
ढाढस बंधाती
अच्छी कविताएं हैं...
बधाई