Saturday, July 27, 2013

वो दूर होने से डरते हैं ....

पास की नजर ख़राब है 
समाचार पत्र को आँख के 
पास ला के देखते है 
पढ़ते हैं शायद 

मुझे लगा अब वो चीजों को 
दूर करने से डरते हैं 
जैसे पास ही रखे स्टूल को खीचते है बार बार 
बार बार दवाइयों की ख़तम होती पन्नी को 
देखते हैं दबा दबा कर 

अब नही हटती मच्छरदानी कभी चौकी से
एक तरफ से उठा रहता है परदा
फिर भी जाली जाली सा दिखता है
लगा मुझे मलते हैं आँख और भुनभुनाते से हैं

सिरहाने रखे बचे पैसों को
बेचैन होकर गिनते है
जमीन पर गिर पड़े सिक्के को
आवाज के साथ नाचते हुए देखते हैं
फिर खीच सरका के लाते हैं पास

वो पास खीच लाना चाहते हैं
अपने बेटे की आवाज
अपनी बहू की फिकर
अपने पोता पोतियों के खिलौने

अब वो दिवार के बहुत पास हैं
सुनते है आहटों को जो दूर होती जा रही हैं
जमीन के पास है पैर धंसा के चलते से
उदास एकांत की सीटियों से कांपते है

अब आसमान ताकते हैं
आजकल वो अपने आसपास ही रहते हैं

हाँ भाई वो दूर होने से बड़ा डरते हैं ....

Thursday, July 4, 2013

खूंटे से बंधा आसमान

भींगे गत्ते से 
बुझे चूल्हे 
को हांकती 
टकटकी लगाये ताकती 
धूवें में आग की आस 

जनम जनम से बैठी रही इया 
पीढ़े के ऊपर 
उभरी किलों से भी बच के निकल 
जाती है 

धीमी सुलगती लकड़ियों में
आग का होना पहचानती है
हमारी गरम रोटियों में
घी सी चुपड जाने वाली इया

घर की चारदीवारी में चार धाम का पुण्य कमाती
भींगे गत्ते को सुखाती
हमेशा बचाती रहीं
हवा पानी आग माटी
और अपने खूटे में बंधा आकाश ....