Friday, May 31, 2013

मेरी चोटी में बंधे फूल ..

तुमने मुझे बेंच दिया 
खरीदार भी तुम ही थे 
अलग चेहरे में 

उसने नही देखीं मेरी कलाइयों की चूड़ियाँ
माथे की बिंदी .मांग का सिंदूर 
उसने गोरे जिसम पर काली करतूतें लिखीं 
उसने अँधेरे को और काला किया... काँटों के बिस्तर पर 
तितली के सारे रंग को क्षत बिछत हो गये 

तुमने आज ही अपनी तिजोरी में
नोटों की तमाम गड्डियां जोड़ी हैं
खनकती है लक्ष्मी
मेरी चूड़ियों की तरह

चूड़ियों के टूटने से जखमी होती है कलाई
धुल चूका है आँख का काजल
अँधेरे बिस्तर पर रोज़ बदल जाती है परछाईयां
एक दर्द निष्प्राण करता है मुझे

तुम्हारी ऊँची दीवारों पर
मेरी कराहती सिसकियाँ रेंगती है
पर एक ऊँचाई तक पहुँच कर फ्रेम हो जाती है मेरी तस्वीर
जिसमे मैंने नवलखा पहना है

खूंटे से बंधे बछड़े सी टूट जाउंगी एक दिन
बाबा की गाय रंभाती है तो दूर बगीचे में गुम हुई बछिया भाग आती है उसके पास
मैं भी भागुंगी गाँव की उस पगडण्डी पर
जहाँ मेरी दो चोटियों में बंधा मेरे लाल फीते का फूल
ऊपर को मुह उठाये सूरज से नजरें मिलाता है .......

Saturday, May 25, 2013

.लेखक का एकांत _14

का खाऊ का पिऊ का ले परदेश जाऊ ....हम कितने डूब कर सुनते ये कहानी ..मुँह खोल कर ..जब कहानी जंगल से गुजरती हम अपनी मुट्ठी भींच लेते ..और जब राजकुमार आता ..हम सरक कर अम्मा के पेट से चिपक जाते ..राजकुमार 

अपने सफ़ेद घोड़े पर सवार हो धूल उडाता चला जाता ..हम आँखें मल कर उसके सुन्दर रूप को देखते ..अब कहानी में एक लड़की होती ..हम अपनी फ्राक में रखी लाइ को खाते खाते रुक जाते ..हाँ अम्मा फिर क्या ?उसकी सौतेली माँ

बहुत सताती ..बर्तन माजना ..पुरे घर का कपड़ा धोना ..भूखे सो जाना ..हमारी गौरैया सी आँखों में मोटे आंसू आ जाते ..अम्मा अपने पेट पर लेटा लेती ..सहलाती ..कहानी है बाबु ..फिर एक माली की लड़की पर राजा का मन आ गया पर लड़की का मन ?.....कौन पूछता है ...क्यों नही पूछता ?अम्मा चुप लगा जाती ..दिवार पर जाला लगा है कल साफ़ करना होगा बडबड़ाती....हम मछरदानी में घुस आये मछर मारते ...हाँ अब आगे ...फिर क्या ..अच्छा वो सात भाई वाली कहानी अम्मा ...हाँ हाँ जब सातवां भाई अपनी चिरई सी बहन को अपनी जांघ चिर कर छुपा लेता ..बाप रे .हम अपने भाई का मुंह ताकते..वो इशारे से कहता सब कहानी है ..कोई ऐसा नही करने वाला ..और हमारी चोटी खिंच लेता ...अब दूसरी कहानी में सौतेली माँ भाई बहन दोनों को कटवा कर जंगल में फेंकवा देती ...हमारी आँख बड़ी खुल जाती ...अब भाई बहन बेला चमेली बन जाते ..हम एक दुसरे के को जोर से पकडे होते ..कहानी के दुःख ने हमे दुखी किया ...प्यार ने करीब ..अम्मा किअतानी ही बातें ऐसी कह जाती जिनके अर्थ बाद में खुलने लगे ..जैसे रजवाड़े में व्याही लड़की का अकेलापन ..जैसे आम के बगीचे में भागती हवा का पिंजरा ..भाई के दूर होने दर्द ..ससुराल जाने वाली लाल चिरैया की कहानी ..कम पढ़ी लिखी अम्मा ने ही हाथ पकड़ कर क की कवायद सिखाई थी ..आम में पीला रंग भरा था ..आँखों में आकाश भी ..काले काजल का बादल भी ..संवेदना की नदी भी ...

यही माटी मे शरीर माटी होए वाला बा सबकर .... ..तुम माटी बन गई राख बन उड़ गई नदी बन बह चली कही और किसी और जगह ..पता है होगी कही ..चारो बगल बच्चों को बैठा कर ..तार काटो तरकुल काटो ..की मामा हो मामा चीटिया क झगडा ..वाला खेल खेल रही होगी ..मेरा बेटा मेरे बगल में खेल रहा है ..दिवारों पर बहुत गहरा जाला है ..या की दिख नही रहा कुछ साफ़ साफ़ ...तुम कहानी बन गई ना ...

लेखक का एकांत _13

मैं तुमसे मिलना ही नही चाहती के तेवर को तुम समझते और नही आउंगी के सच को झुठलाती दिन के सबसे गरम समय में पैर पटकती उस उपेक्छित तालब की सीढियाँ उतर जाती ..तुम्हारी आँख की मुस्कराहट पानी में खिले एक्का दुक्का उन कमल के फूलों को कुछ और गहरे रंग जाती ..हाँ बोलो क्या बोलना है ? कुछ नही में वो सर हिला देता ..पता था ..नही आउंगी बोल कर मैं आ जाउंगी..कुछ नही बोलना है की चुप्पी को तोड़ने के लिए फिर मैं बात भी करुँगी...तुम्हारे इशारे में तुम्हारी कहानियाँ छुपी होती ..लाल आँखों में गई रात नींद नही आने की शिकायत ..पढ़ाई नही हो पा रही है के शिकन से तुम्हारे माथे पर पड़ता बल ..तुम्हारे चुप रहने से मैं बातें करती ढेरों तमाम ..तुम हाँ हूँ कर सब सुनते ..मेरे कलाई में पड़ी उस लोहे की चूड़ी को घुमाते रहते .

.तालाब का पानी इतना गरम की हाथ सिंक जाए .फिर भी उन बैगनी कमल के फूल की मुस्कराहट को नही चुराता कोई ..हम जितनी देर वहां होते सूखे पत्ते गिरते तेज हवा से तालाब के पानी पर झुर्रियां सी पड़ जाती ...हमें मौसम सिखाते हैं ..वो मेरी गुलाबी हथेलियों को अपने रूखे हाथो में कुछ देर पकड़ कर रखता ..मन के अन्दर के मौसम के बदल जाने का समय होता वो ..तुझे तेज धूप में आना पड़ता है ना मेरे लिए ..गाल तप से जाते ...हाँ तो..अब आगे से नही आउंगी ...बहोत गरमी है ..वो अपने कमीज के निचे रखी एक किताब निकाल कर मुझे देता ..तुम्हारे लिए ....आज ही लाइब्रेरी से ली चार दिन बाद लौटना होगा ...हम्म ..तो चार दिन बाद फिर आउंगी मैं यही ना ..चा..र ....दि.न ...आ जाना ना ................(झुलसाती गरमी में चन्दन सी यादें .. )

Tuesday, May 21, 2013

एकांत में अतीत _12

जब साडी पहननी नही आती तो पहनी क्यों ?मैंने फिसलते प्लेट्स को मचोड कर खोस लिया ..काम वाली बाई भी इससे अच्छा पहन ले ..मेरी निगाहें नीची ..ट्रेन भाग रही थी ..वातानुकूलित डिब्बे में आवाज कम आती है ..मैंने पहली बार उस डिब्बे को अपनी खुली आँखों से अन्दर बैठ कर देखा ..जब हम बच्चे थे तब कैंट सटेशन पर अपनी सादा लाल गाडी का इन्तजार करते हुए जब कभी ये शीशे बंद डिब्बे हमारे सामने रुकते हम उचक कर देखते .कुछ नही दिखता सा दिख जाता ..अम्मा बताती वो विदेशी लोग जाते है ..आज मुझे पहली बार एक विदेशी के साथ उसी बंद डब्बे में बैठाकर भेजा जा रहा है ..बम्बई ..फोटो में देखा था ..सिकुड़ कर एक कोने में हो ली थी ..लम्बे बालों का हेयर बैंड बार बार खुल जाता ..चटक लाल सिंदूर से भरे मांग को वहां लगे शीशे में देखना बड़ा अलग सा लग रहा था ..पर बार बार निहारूंगी तो क्या कहेंगे सब ..फिर मुहं गाड लिया और कादम्बनी देखने लगी ..उल्ट पलट ..हाथ को बार बार खिड़की के शीशे पर रखती ..कोई उपाय नही ..हवा से हाथ नही लड़ा सकती अब..पुड़ी भुजिया खाने की जगह केटरिग से खाना आया ..मुझे आता था खाना खाना पर उस दिन सब गड़बड़ हो रहा था ..पति ने परदा लगा दिया ..बाबा रे ..परदा ट्रेन में ..अब ससुर ने तौलिया बिछा दिया ..मैं लल्लू की तरह सब बात मान रही थी .

.पहली बार मुझे लगा दिमाग नही मेरे पास..मेरा सञ्चालन अब मैं नही कर रही ..बस सांस लेने का काम मेरा ..हे प्रभू ..पांच मीटर की साडी ..अरे कम्बखतों ..कोई तो पुराने कपडे रख देता की बदल लेती ..ये सफ़र बड़ी मुश्किलों से तय हुआ ..और तय ये भी हुआ की मुझे अकेला ना छोड़ा जाए की मैं इधर उधर टहल न लूँ..और कुछ सलवार कुरता खरीद दिया जाए ..दूसरा निर्णय सही था ..अब मैं बम्बई..महानगरी से ...पूरा बम्बई स्टेशन मुझे लेने आया था क्या ..नही नही लोकल की भीड़ है ..मेरी सिड्रेला वाली चप्पल को बर्थ के बड़े निचे से निकालते हुए पति ने घूर के देखा मैं बिछिया ठीक करने लगी ..हाँ तो कई लोग आये थे ..बड़े लोगों के यहाँ के रिवाज में मैं नहा रही थी ..हाई भाभी ..यु आर सो स्वीट ..आसमानी पप्पी और झप्पी ...किसी तरह से इन आतताइयों से छूट कर मुझे कुछ कपडे दिलाते हुए मुझे अपने घर में लाया गया ..ससुर ने कहा मोस्ट वेलकम ..ये अग्रेजी कुछ देर और चली न तो मैं चल दूंगी ..मन में सोचा .

.घर में सभी सामन अपनी जगह पर रखा गया मुझे भी ऐसा करने को कहा गया ..इधर चप्पल..इधर पर्स इधर कपडे ..ये बाथरूम ये रसोई ये बेड रूम यहाँ चाभी रखी जाती है ..उस बंद डिब्बे में विदेशी जाते हैं ..अब मैं बहुत दूर आ गई ..गला भरने लगा ..कहाँ जा कर रो लूँ ..लडकियां कितनी सहज होती है ना जिस माटी में २० साल खेली पलीं बढीं उन्हें जड़ समेत कही और रोप दिया जाता है ..नए बीजों का माटी में खो जाने का जी करता है ..पर नइ उम्मीद नए प्यार के छीटों से वो फिर गहरे जड़ बना लेती हैं ....उनकी उदासियाँ बड़ी बेआवाज होती है ..समझो उन्हें भी ..बंद शीशे के विदेशी डिब्बे से तुमने मुझे बड़ी दूर भेज दिया भाई ..हमारे बचपन की हथेलियों के छापे दिखाई देते है इसपर .जो हम उचक कर लगाते थे ..मैं इसमें जब भी बैठती हूँ सबकी आँखें बचा कर तुम्हारे खाली हाथ पर अपने हाथ रख देती हूँ ...

Friday, May 17, 2013

एक लेखक का एकांत -11

त्योहारों की मौसमों की टिकटें नही बंटती सूखे हरे पत्तो का टूटना बिखरना हवाओ का रूठना मान जाना हमे अपने आप में रंग लेता है ..सुबह गुलमोहर के चटक खिले रंग इठलाते से कहते हैं ..देख क्या रहे हो कल नही था आज हूँ जी भर के रहूँगा ..आज ये बात पेड़ की सबसे ऊँची वाली टहनी पर तिरंगा लहराते हुए कहीं है इसने कल पैरों तले मुरझाया सा भी अपनी अकड में चरमराएगा ..फिर आऊंगा देखना ..तुम भी मौसम से लिपट जाते हो हर रंग में ..रंग बेरंग से रास्ते होते है बुद्धू ! मंजिल तो नही ..समय का आना जाना अपने आप को बताता नही अपने आप के साथ बहा ले जाता है हमें ..आज नदी के सूखने से भरी रेत वाली आखें कल झील सी छलक भी जायेंगी ..इन्द्रधनुष को पुरानी डायरी में बंद किया था.. आज बड़ी उमस थी... वो पन्ना खोला की बादल बरस पड़े ..

मौसम की टिकटें होती ना तो मैं बसंत के सारे शो अपने और तुम्हारे लिए बुक कर लेती ..

Monday, May 13, 2013

एक लेखक का एकांत _10

उलाहना ..हमेशा ..घर के अन्दर का परायापन सालता है ..अपने हो ना ..हक से कहो जो चाहते हो कहना .बेजुबान गाय बाँध ली हो जैसे ...बदलते समय में सोच का मानचित्र जरा कम तेजी से बदल रहा है ..उसी पुरानी परिपाटी पर तुम आवाज लगाओ की सामने आ जाऊं मैं ..तुम्हारी तरेरती आँखें से सारा दिन डरी रहूँ की क्या गलत हो गया...जिंदगी जीने के हक का बंटवारा नही किया कभी किसी ने आधा आधा ..जगह दो समय दो इज्जत एक दुसरे के काम के नाम को..सराहो जरा .

.मन के अन्दर टूटने वाले शीशे हर रोज गडते हैं ..उसके नुकीली किरचों से बच पाना आसान नही..मैं अपनी पहचान हो तड़पती रहूँ तुम घर के दरवाजे बंद कर दो ..मैं जा सकती हूँ..जिंदगी जीने का हुनर है मुझमे ..सिखा है..पर साथ ये भी की सब संभाल कर भी तो वो करू जो चाहती हूँ करना ..पल्लू से बंधा बच्चा जीने की वजह भी है बंधे रहने की वजह भी ..हमारे बिच कितना कुछ टूट जाता है .पर जीते हैं हम घर के भरम में ...

.(तमाम घरों का शून्य बोलता है मेरे एकांत में . )

Sunday, May 12, 2013

एक बेटी का एकांत .9

अम्मा ,

तुम्हारी साड़ी बांटी जा रही थी ..अटीदार पटीदार के लोग घर की बहुवें बेटियां ..वो एक बेरंग समय था अलमारी की चाभी एक वृत्त में झूल गई थी दरवाजे खुले थे तुम जा चुकी थी ..सिन्धोरे में कस के बंधा वो लाल धागा ..तुम कहती ये तागपात का धागा है सिन्धोरे में बाँध कर रखते है..अखंड सौभग्य ..सुहागिनों ने सिंदूर लिया वो अमृत कलश सा भरा रहा बाद तक भी ...तुम्हारे दुनियाभर के भगवान् की छोटी बड़ी मूर्तियाँ कलेंडर पर लिखा तुम्हारा दूध का हिसाब सब अपनी जगह पर था ..बस हम अपनी जगह से हिल गए थे .

.रिवाजों के तेरह दिनों में पिताजी ने कभी नही देखा तुम्हारी फोटो की ओर ..५० साल का साथ उनके मन में कितने बसंत की खुशबू छोड़ गया होगा ..तुम उस बड़े फ्रेम से बाहर हो ..आसमान के बुझेतारे भी जल गए थे उस रोज़ जब अंतिम मंत्रोचार से तुम्हें आखिरी विदा कहा था उन २१ पंडितों के ओज से स्वर के साथ तुम सबको अपने अकवर में ले रही थी ..यूँ तो हमारे जाते समय तुम फेर लेती थी खोइछा का चावल पांच बार ये कह कर की आती रहना ..पर इस विदाई हमने नही डाला वो चावल जो वापस कर कहते तुमसे की आना अम्मा ..

लाल माहवार वाले पैर का छापा बाबा की टूटी मड़ई में था आज पिताजी के विशाल घर के दरवाजे को छोड़े जा रहा था ..जिंदगी का सच यही ..पर झूठ ये की नही हो तुम ..तुलसी के पत्तो पे चिपका है पीला सिंदूर ..तुम्हारे लगाये अमरुद पर कोमल पत्तियां निकली हैं कुछ साड़ियों के रंग से भरा है तुम्हारा बक्सा ..त्योहारों पर बोल पड़ते हैं पिताजी आज कुछ ख़ास बनाया जाए ..भाभी के छम छम में गूंजती है तुम्हारी हंसी .बनारस के रिक्शे पर सवार तुम अभी अभी गई हो गंगा की ओर.......आ जाना हाँ ??? सब कह रहे हैं आज मदर्स डे है .....(व्याही लड़कियों का एकांत बड़ा दुसह होता है अम्मा . )

Thursday, May 9, 2013

एक लेखक का एकांत _7

कागजों पर लिखा सच तीर सा चुभा .पलकें बार बार झपकाई जो पढ़ा क्या सच है? .कागज धुलता रहा अक्षर कुछ और साफ़ दिखने के बजाय बुझने लगे .मंदिर की सीढियों पर बैठ गई .संभल लूँ तो आगे की सोचूं .मिलने के कितने गीत विछोह का मौन रुदन 

.जहाँ लगता है सब ख़तम हो गया सच वही से सब शुरू होता है .मेरी अगुलियों में फसी अंगूठी कुछ कस सी गई है जल्दी निकाल दूंगी .सूना दाग सा पडजाता है .कुछ रंगीन सपनों का साझा मेरी आखों में तैर रहा है वो भी बह जाएगा धीरे धीरे ..बजने वाले फ़ोन के सभी नम्बर अजनबी है .कही तुम्हारा नम्बर भी है रोकने की तमाम कोशिश की मैंने पर एक बार बस तुम्हारी आवाज सुन लूँ का मोह नही त्याग पाई ..यह नम्बर अस्थाई रूप से बंद है ....बड़ा धार था इसमे ..कलेजा कट गया ..

मन में एक जंगल है वीरान बस एक हरा पेड़ है जहाँ मैं और तुम बैठते थे ..तुम्हें पता है प्यार ही बचाएगा इस हरे को कुछ हरी पत्तियां गिर रही है उदास बेआवाज ..मैं अकेला होने से बड़ा डरती हूँ तुम भी जानते थे ..बेजान सी डगर है ..रास्ता भूल रही हु ..हाथ का कागज़ चिंदियों में तब्दील है .

..तुम्हारे भेजे अक्षरों की आग में कविता जल रही है ..कभी सुनना ये कहानी ...पहचनाने वालों में वो पेड़ भी थे जिसपर बंधे धागों में घुमती रही थी धरती गयारह चक्कर ..

Monday, May 6, 2013

एक लेखक का एकांत _6

नदी के सामने रहो ..कुछ ख्याल बहते हैं उसमे .कुछ उदासी गोते लगाती है .दुःख की छटपटाहट उसकी नन्हीं तरंगो में दिखती है .बनारस के घाट की सीढियों पर शाम की भीड़ में अपने लिए चुनी हुई अकेली सीढी पर हम अपनी जिंदगी से हारते जूझते कुछ देर यहाँ बिता देते ..नदी साथ है हम जितनी दूर देखते है रंग दिखाई देते है डोलती डोंगियों से टकराता दीया ..अपना रास्ता चुन लेता है .पांच डूबकी में धुल जाने वाले पाप, दान का पुण्य ,माथे का टिका, ललाट पर दिव्या चन्दन, गोरों की गिटपिट को पछाड़ते मल्लाहों के अल्हड किशोर,

महंगे कैमरों में कैद होती गरीबी.. खाली पड़ी थाली के सिक्के कोढ़ से खो गए हाथ पैरों वाले भिखारी सिंदूरी धोती में गंगा आरती करते गरिमामय पंडित ..आँखें जो देखना चाहती है वो द्रश्य है ..नदी को छूटे हम काँप जाते है या नदी तुम सोचो ..हैरान करते सवालों का जबाब है नदी के पास .अकेलेपन की गहरी उदासी में सोचो तो कहीं भी रहे तुम्हारी आँखें से निकल पड़ती है ..

जीवन औए मरण का संगम है यहाँ .चिताओं की ठंढी पड़ी राख जब नदी में तैरती है आचमन की अंजलि में भर जाती है कुछ अदृश्य उदासी ..तमाम लोगों ने मन्नतों की चुनरी चढ़ाई है ..पर कितने ही बुझ गए तुम्हारी गोद में ..मेरी उदास सीढियों से छप कर टकराती हो तुम ..एक सा दुःख ना ..एक सी उलझन ..बचेंगे तो बहते रहेंगे जिंदगी की रगों में जिंदगी बन ....

Friday, May 3, 2013

किताबों की बातें

मामा हमे बड़ी मेहनत से अग्रेजी सिखाते ..ता है ती है से वर्तमान का बोध ..था है थी है से भूत का ..और रहेंगे खायेंगे से भविष्य का बोध कराते..पर हमारे अबोध मन को कुछ समझ नही आता ..तब के पेपर में १० मार्क का ट्रांसलेशन आता ..दस लाइन आती ..हम खूब मेहनत से ३६ नम्बर लाने की कोशिश करते ..

जैसे हम रटते..वन्स ओपोन अ टाइम देयर वास अ किंग ..पुरे छत में घूम घूम कर रटते ..अम्मा बड़ी हसरत से हमे अग्रेजी में महारथ हासिल करते देखती ..तरह तरह की गाइड कुंजी होती हम सब पढ़ते ..पर मुझे एक बात तब से आज तक सता रही है ...रामायण में जितनी बार राम का नाम आया उससे ज्यादा बार ट्रान्सलेसन में आता ..रहीम के दोहों से ज्यादा रहीम भी रहते राम के साथ ..हमेशा राम एक अच्छा लड़का है ..रहीम बाजार गया ..और हाँ रमेश का भी सहयोग पूरा होता ..

ये तीनों नाम ..का हज़ारों उदहारण मिल जाता इतना की ..व्हाट इस योर नेम ?पूछने पर हम अपना नाम राम ही बता देते ...जिसका नाम रहीम हुआ करता वो भी अपना नाम राम बता देता ...अब उतना ही रटा था सबने ...अग्रेजी ने बड़ा परेशान किया...लाल आँखें हो जाती हमारी पर परीक्छा के कॉपी नीले नही होते ..has been..have been का प्रयोग कभी सही तरीके से करना नही आया ..ऐसा होता तो क्या होता से ज्यादा ..अब ऐसी ही हैं तो क्या करें ..पर अड़े रहे ...

नाम में क्या रखा है क्या डाइलोग मारते रहे हम ..मन के अन्दर जो बातें रह गई वो इतनी ..की राम रहीम एक साथ रह सकते है ..अच्छे दोस्त बन सकते हैं ....जार्ज और पुष्पा की खूब बन सकती है ..रामू हमेशा चाय नही बनाएगा ..सिर्फ पिताजी ऑफिस नही जायेंगे मम्मी भी जायेंगी ..सिर्फ भाई अपने बहन की रक्षा नही करेगा ..बहन भी करेगी ..गीता हमेशा नही रोती रहेगी ...अम्मा हमेशा खाना नही बनाएगी ..अपनी भाषा में हम सपने देख सकते हैं ..प्यार कर सकते हैं ..हमे तो यही पसंद है ..आप इसपर भी गर्व कर सकते हैं ..की हाँ हिंदी हैं हम ..

.उदाहरणों को बदलना पड़ेगा ...समय बदल गया ना ..मुझे जब भी जो सिखाया जाता मैंने हमेशा उससे परे ही बातें सिखी ...फडफड अग्रेजी बोलते हमारे ही बच्चे हमसे आगे चलते है ..जरुर सीखो ..खूब सीखो ..पर अपनी जमीं पर रहो ...मामा !कभी नही आया हमारा अच्छा नम्बर ..पर कोई बात नही ... मिल जुल कर रहना आया ..सभी धर्म और जाति से अपना पन सिखा ..आखिर ये हमारी एक ही किताब में ही तो थे .....

होली हमारे देश का एक रंगबिरंगा त्यौहार है ..हम एक रंग में रंगें हैं ..ओह किताबों में बातें नही होती थी लिखी ..उनके मर्म हुआ करते ..सिर्फ ३६ नम्बर लाने के लिए मत पढना .......thank यू मामा...:)