Monday, December 23, 2013

वही मैं वही तुम ..

दर्द को कूंट रही हूँ 
तकलीफों को पिस रही हूँ 
दाल सी पीली हूँ 
रोटी सी घूम रही हूँ 
गोल गोल 
तुम्हारे बनाये चौके पर 

जले दूध सी चिपकी पड़ी हूँ 
अपने मन के तले में 
अभी मांजने हैं बर्तन 
चुकाना है हिसाब
परदे बदलने हैं
आईना चमकाना है
बिस्तर पर चादर बन जाना है
सीधी करनी है सलवटें

बस पक गई है कविता
परोसती हूँ

घुटनों में सिसकती देह
और वही
चिरपरिचित तुम ...........

Monday, December 9, 2013

लेखक का एकांत

एक मछली थी ...पानी में फडफडाती सी...रेत पर तडफडाती सी ..जरा सी आँख में डबडब पानी .छोटे से पंख से पानी काटती ..फिसल कर संभलती..संभल कर चलती की फांस ली जाती ..दुखी हो जाती...

पानी का ओर छोर नापना था...उस कम्बखत डोर से बचना था ...अब जान बचे ना बचे ..कोई आखिरी इक्षा है तो बता दे ..मछली बोली उड़ना चाहती हूँ ..जंगल के ठीक ऊपर से ..सुना बड़ा घना होता है ..कोई खो जाए तो मिलता नही ..जानवरों से भरा है..अगर है तो ऐसा ..मुझे उड़ने दो...बचा जंगल रोने लगा ..अतीत की जड़ें भिगोने लगा..मछली की आवाज से सब चकित थे...पहले बस चमकती भर थी..जीने भर को जीती थी..अब बोलने भी लगी...

अच्छा एक बार भरी नदी में डूबना है ..नदियाँ रेत में समां गई रेत हवा के साथ उड़ गया...अब ? एक पूरा नीला आसमान ही दिखा दो ...तकलीफों के बादल छाये थे..कहते है दूर देश से पानी लाये थे..किसानों के आँख से बरसे ..पर हरी भरी धरती को तरसे ..किसी और एरिया ने खरीद लिया था उन्हें...मछली उदास हो गई ...

मछली की बिंधी देह से आसमान उतार लिया गया..उसके आँख की नदी में सूख गये सपने..इंसानी जंगल की भीड़ में तुम जानवर बने ..मछली ने बोलना बंद नही किया..सुना बड़े तेवर है..जख्मी हो तो पानी लाल हो जाता है..पर उम्मीदें आसमानी हैं इसकी ...बची हुई मछलियों को कम करने की होड़ में वो अपनी ताकत गँवा रहे हैं..और इंसानियत का नया इतिहास बना रहे हैं....

.एक मछली थी ...अब बिजली से चलती है..कटोरे भर पानी में ...सब मूक दर्शक....मुरझाये पत्तो का एकांत.. बसंत की आस ...

Tuesday, December 3, 2013

लागा झुलनियाँ क धक्का ...

कभी तुमपे कभी हालात पे रोना आया..बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया ...

बाभन टोला के छत से आसमान जरा नजदीक दिखाई देता ...बड़ी दूर नाच की आवाज हवा में तैरती सी छत पर रुक जाती..."लागा झुलनियाँ क धक्का बलम कलकत्ता पहुच गए "बुआ देर रात तक जागती दूर से आ रही मध्धिम पड़ती रोशनी की एक डोर उनतक पहुचती..बुआ वही थामे ना जाने कौन दुनियां में विचरती..बुदबुदाती ..अपने लम्बे बालों में कटोरी भर तेल मलती ..और बिखरी सी सो जाती ...

सबकी लाडली रहीं बुआ ..जो मांगती आ जाता ..शहर से आया कपडा सिलाती..ऊँची एडी का चप्पल भी मंगावती शहर से ..नये फैशन का बैग ..और रेशम के पक्के रंगों का धागा... ....अब गाँव में लड़की के बड़े हो जाने का अपना पुराना तर्क हुआ करता ...शादी की सुगबुग पढाई का छुडवा दिया जाना..लड़के की तलाश ..घर का रंगरोगन ..और उस लड़की की विदाई जो अभी चहकती सी आपके आँगन में फर्गुदियाँ सी उछलती कूदती रही ...

बीस साल बड़े रहे अवधेश फूफा ...घर के बड़े ..अपना पक्का घर ..इकलौती संतान ..बड़ी मूंछ..तगड़ी काठी ..और इधर इत्ती सी जान की बुआ ..बिना किसी विरोध शादी हो गई ..बुआ के फ़िल्मी दुनियां वाली ढेरों पत्रिका पड़ी की पड़ी रह गई..जिसमे देखती रही बुआ अपना हीरो सा राजकुमार ...

हम बच्चे थे तब जब आँगन में अपनी पियरी में बुआ शादी के पीढ़े पर बैठी ..आँगन की सारी औरते फुसफुसाती सी कहती रही..बाप सामान दूल्हा खोज लाये बाबा ..घुघट की ओट से बुआ भी अपने दूल्हा को देख सकपका गई थी..बलि का बकरा ..मेरे गाँव की ये सबसे दुखद शादी थी ...जब पहली विदाई पर बुआ ने अपना विरोध जताया ..किसी ने उनकी नही सुनी..अगली साईंत आने तक बुआ चादर तकिया में फूल काढती रही..रोज शंकर जी को जल चढाती रही..कुआँ पर बैठकर घंटों अपनी सखियों को अपना दुखड़ा सुनाती..सारा दिन इधर उधर के घरों में जा के कॉपी भर गाना लिखती रहती..बन्ना बन्नी सोहर कजरी..चैता ..

विदाई का साईंत बन गया तारीख सुना दी ठाकुर मंदिर के पुजारी ने ..बुआ का झांपी सजाया जाने लगा..हल्दी लगाने वाली नाउन रोज़ आने लगी ...बुआ को जैसे बिच्छू घास छू गया...बड़ी बड़ी आँखों में दूर दूर तक सुखा पडा रहता ..गाने की कॉपी में आखिरी पन्नो पर विदाई गीत लिखती बुआ अपने खटिया से लग के रो पड़ती..अम्मा का आँखें क पुतरिया..भैया से जल्दी बुलाने की गुहार ..बाबा से आम का पेड़ मत काटने की मिन्नत करती बुआ.

.बैलगाड़ी पर एक कोने में सिसकती गाँव के उसी रास्ते से विदा हो रही थी..जिसपर अपना दुपट्टा फहराती अपनी सखियों के साथ खेत में मटर तोड़ती..कैरी खाती ..और नचनियां के याद किये गाने पर ठुमका लगाती ..."लागा झूलानिया क धक्का बलम कलकत्ता पहुच गये
'
'..तेज खिलखिलाहट ...तेज रौशनी की किरण..उसकी डोरी थामे बुआ ..सारी रात जागती सी क्या बोलती थी...कोई कभी ना जाना ..बुआ के पेट पर लेटे बैठे हम खेलते रहे घुघुवा मामा उपजे धामा....हम अनजान थे बुआ ..कभी नही समझ पाए ..तुम वो राजा रानी की कहानी में उस बिचारी राजकुमारी का जीकर आते क्यों मन भींगा लेती..वो तुम ही थी ना ??

Sunday, December 1, 2013

लेखक का एकांत

कोई रिश्ता नही मगर फिर भी .......एक तस्वीर लाजमी सी है......

आँखों की नदी ..बाहों की पतवार ..जिंदगी का समन्दर.. ना जाने कितने .भंवर कितने बवंडर ..तुम्हारी चौडी छाती पर टिकी मेरी परेशानियाँ ....

प्यार बंद डब्बे में कपूर सा ...जतन ना करो तो ना जाने कौन सी दिशा में उड़ जाए..बादल बन जाए...हम भींगते हुए भी सूखते रहे ..की पछताती आँखों में एक ग्लानी तैर जाए..ऐसा क्यों किया ??

सुनो आज रात अजीब ख़ामोशी फैली है ना चारो ओर..जरा मेरी पुरानी डायरी देना ....तुम कितने पास ...समय की टिकटिक ..बेफिक्र हवा..पुराने पन्नों से कुछ मीठे वक़्त चुराते हैं..पुरानी कविता पढ़ कर मुस्करा लेते हैं चलो..अच्छा वो आखिरी पन्नों पर तुमने क्या लिखा काटा था..आज तक नही बताया...मेरे उलझते बालों में सुलझती अंगुलियाँ ...

एक छत अतीत हो गई..एक प्यार याद भर..एक डायरी .जिससे होती हुई गुजर जाती हूँ .

.रात बड़ी हो रही ..हर करवट एक सपना बदल जाता है ..पुरानी सूखी पंखुरी का झर झर जाना ...तुम छुईमुई हो..आखिरी पन्ने की मुस्कराहट ...भूला हुआ गाना ...

शाम से आँख में नमी सी है ..आज फिर आपकी कमी सी है........एकांत के बोल ....कभी सुन भी लो ....

Wednesday, November 6, 2013

लेखक का एकांत

अजीब है ना। ।आप खुश हैं कि अचनाक ना जाने कौन से रास्तोँ से चलता हुआ आपका अतीत अचनाक कोहनी मार देता है। .भूल गई क्या ?? हम भी हैं। अब एकांत यूँ भी नही कि आपको एक उदास बुझा हुआ दीया थमा जाए। .पर जो बुझ ही गया मन तो अपने आप को क्यों झुठलाएं अब ऐसा ही है।

और देखो ना फुलझड़ियों से झरने वाला वो चमकदार फूल भी तो अँधेरी सलाखों में कैद हो जाता है तो क्या बचा हाथ में गरमाई हुई काली बेजान तीली। क़ल कि पहनी साड़ी कि तहोँ में यादें सहेज गई। अब रखी रहेगे अलमारी के एक कोने में अगली बार जब पहनेंगे बरबस ही बोल देगा मन पिछली दीवाली को पहनी थी ना। हमे चलते रहना है आगे ..अपनी सोच के साथ नए रास्तों के साथ ..रीती रिवाजों को भी जरा मरा फेर बदल कर निभाते रहना है अतीत कि जुगाली करते रहो कुछ नये स्वाद के साथ बातें याद आती रहती हैं।

कल रात काली थी कितनी ना कि इतनी रोशनी हुई पर मन पर अम्मा छाई रही। वो रात वाला काजल याद आता रहा ..अम्मा कि चुटकियां याद आती रही.. बिना कपूर के काजल के भी लगा आँखे जल रही हैं ..सुबह आईने में आँखें कोरी ही थी ..

अम्मा अब ऐसा तो नही कि अँधेरा साथ ले गई आप हमे बस इन उजालों कि फुलझड़ी थमा दी लो मुस्कराते रहो कुछ बादल पीछे छोड़ गई काला सा जरा सी आँखो में भी भर भर के छायें रहते हैं ...सभी भाई बहनो ने एक दूसरे से एक बात छुपाई कि अम्मा याद आ रही हैं पर सब जान गये और ..पिताजी तुम्हारे कमरे के शुन्य में चुपचाप पुराने हाफ स्वेटर कि वही पुरानी बर्फी वाली डिजाइन को देख कर मीठे हो रहे थे

दीवाली थी न मुह मीठा करना जरुरी है

आसमान के रास्ते हमारे शहर कि सबसे बड़ी खिड़की से मेरी आवाज भागती हुई तुमतक पहुचना चाह रही थी

आपकी आवाज भी आई थी पलट के। खूब घर परिवार सुख से भरल रहे सदा सौभ्यावती का सिंदूर भी चमका हमारी मांग में हाँ हाँ पुराने गहने भी पहने थे हमने तो याद का और तुम्हारा रिशता भी तो ऐसा ही है

पटाखो के तेज़ आवाजों के साथ अपने बच्चोँ का कुनमुनाना तुम देख और सुन सकती हो

बड़ी जिम्मेवारी वाली दीवाली थी जब हम जान गये हैं कि अपनी अंगुली को आग से दीये से कैसे बचाना है अब तुम नही ना हम सब सिख गए

एकांत में टीम टीम करता दीया और मन के फर्श पर तेल सी फैली तुम्हारी याद

Saturday, October 12, 2013

मिलना बिछड़ना कुछ नही होता ....

रास्ते वही होते हैं 
कोई आता है हमारी ओर
कोई बिछड़ जाता है 

खाली भरम 
सारे रास्ते भाग रहे हैं 
तुम्हें इधर मुझे उधर 
पहुचाने के होड़ में 

हमारे मिलने के आभास भर से 
शहर में कुछ कुछ दूर पर बिछी है हरे घास वाली बगिया
झूठा ही सही पानी का रंगीन फुहार भी
झलमलाता है हमारे लिए

उस चौक का पुलिस वाला देखो ना कितनी बार
रोक देता है गाड़ियों का काफिला की हम
पार हो जाएँ

कितनी ही बार वो लाल फूल बेचने वाला बच्चा
तुहें थमा देता है
महकते फूलों का गुच्छा तुम मुस्कराते हो
लाल फूलों में मेरे होठ छूते हुए

देखा अभी अभी मिले हम ...

ठंठे पानी के छीटें में भी
मैं अपने रुमाल में बूंद बूंद समों लेती हूँ तुम्हें
तुम्हें सोचना ही मिलना है तुमसे

देर तक डायरी के खाली पन्ने पर
रेगतीं हूँ इधर उधर और कुछ नही लिख कर भी
मुस्कराती हूँ

मिलने बिछड़ने की सोच में भाग रहीं है सड़कें
ये लो तुमसे मिल कर बिछड़ गई
पर आँखें बंद करते ही
एक नीली नदी में डूब जायेंगे हम ..

नदियों में आई बाढ़ सा मौसम ..उतराता डूबता सा ....

.शैलजा पाठक

Monday, October 7, 2013

करीमा...माफ़ कर दे

चलिए करीमा के साथ... हमारे ही गाँव के उत्तर में उसका घर है ..घर क्या चार जर्जर दिवारों का एक ढांचा ...उसी में रहता है करीमा ..और सच जानिये तो रहता ही कहाँ है ...सारा दिन तो गाँव के लोगों की सेवा टहल में बीत जाता है समय ...मुंह अँधेरे घास की मशीन से चर्र मर्र की आवाजों के साथ उसका आगमन हो जाता है ....

पर कहानी बस हम तक सिमित है ..करीमा हमारे लिए जादूगर था ..उसके पास तरह तरह के गाने थे ..हमरा के जानी ना सिपाही जी ...ए दुल्हिन सपना में केकरा से भेटेलु......और हम सब का फेवरेट गाना ...ए डागदर बाबू बेमार भैल बकरी ...बस इस गाने को गाते गाते करीमा गाँव के अहर डहर के रास्ते हमें पूरा गाँव घुमाता..हम पूरी भक्ति से उसके पीछे ये गाना जोर जोर से गाते ..बगीचे की सबसे ऊँची डाली पर पत्तो के पीछे छुपा है एक पका आम करीम सरपट ऊपर ..हमारे मुंह में आम के रस निचोड़ता..हमारी पेंसिल को अपने पास रखे तेज छुरी से एकदम नुकीला बना देता ..हमारी चोटी कस के बाँध देता ..जल्दी से सबके हाथ मुंह धुला देता .

.तब कुवें पर बाल्टी डोरी सब आने जाने वालों का प्यास बुझाती ...एक लोटा में मुंह लगा कर जोर से अपना नाम गोहराता..हमें बताता सौ सौ लोगों की आवाजें पुकारती हैं उसे पलट कर ...सब जादू ना करीमा ?चाची लोगों की सतरंगी टिकुली के लिए वही लाता गोंद ना जाने कौन से पेड़ से इकठ्ठा कर के ....बाबा के गमछे को धोती को इस पेड़ से उस पेड़ में बांधकर पल भर में सुखा लाता..जादू ना करीमा?

पर गाँव के चौपाल पर जब बच्चा चाचा निर्गुण गाते करीमा रो रो के हलकान हुआ जाता ..जब रामायण के बनवास को पंडित जी बांचते करीमा बेचैन हो जाता ....हमे तो कभी ना समझ में आया करीमा की जिंदगी में कोई तकलीफ भी है ..हमेशा दूसरों के लिए काम करते रहने वाला करीमा अनाथ है ..बाबा ने बताया ..माँ बाप बचपने में ही मर गये ..छोटा जात ..इधर उधर काम टहल करते रहता है ...उसके एकांत की पगडंडियों पर हमारा बचपन भागता था ..हमारी आवाजों की पुकार में वो सारे रिश्ते जी लेता .

.अब देर रात अपने घर की दीवारों के बीच अजोरिया रात में वो अपने पैरों में पड़ी दरारों को मोम से भरता ...ना जाने कितनी चाचियों ने सटा के लगा ली अपनी टिकुली ..बच्चों ने जोर जोर से गाये उसके गाने ..घास की चर्र मर्र के अलार्म से उठा करती नई दुलहिनें ...कोहड़ा के लतर सा छाया रहा करीमा बाबा के खपरैल पर ...एकदम से उसके मरने की खबर आई ..गाँव के उत्तर टोला के कुवां में लाश मिली ..करीमा था ....

मुझे लगा मैं जानती थी उसके मरने का कारण ..पहले क्यों ना बता दिया ...ये कैसा अपराधबोध दे गया करीमा ..तू कुवां पर रात काहे गया मुझे पता है ...तूने अपने नाम की आवाज लगाईं ना ..और उन हज़ार हज़ार आवाजों ने पलट कर तुझे पुकारा ..तू चला गया उनके पास .....

किनारे एक लोटा लुढका पड़ा हवा से इधर उधर डोल रहा है ..अन्दर से चीख पुकार मची है ..अकेलापन अकेले ही मारता है हमें ..अनजान आवाजों में अपनों की खोज ..समय इशारे क्यों नही करता ?? करीमा तू जादूगर नही था .................माफ़ कर दे ...

मुंह में उसी मीठे आम की चट चट ..एकांत की कहानी ...

Monday, August 26, 2013

बहनें ...दो कविता



कुछ कतरनों में हमनें भी सहेजी है 
नैहर की थाती 

हमारे बक्से के तले में बिछी
अम्मा की पुरानी साड़ी 
उसके नीचे रखी है पिताजी की वो तमाम चिठ्ठियाँ 
जो शादी के ठीक बाद हर हफ्ते लिखी थी 

दो तीन चादी का सिक्का जिसपर बने भगवान् की सूरत उतनी नही उभरती 
जीतनी उस पल की जब अपनी पहली कमाई से खरीद कर 
भाई ने धीरे से हाथ में पकड़ा दिया ये कह कर
बस इतना ही अभी

तुम्हें नही पता तुम्हारा इतना ही कितना बड़ा होता है की
भर जाती है हमारी तिजोरी

की अकड़ते रहते हैं हम अपने समृध्ध घर में ये कहते
भैया ने बोला ये दिला देंगे वो दिला देंगे

हद तो ये भी की भाभी के दिए एक मुठ्ठी अनाज को ही
अपने घरों के बड़े छोटे डिब्बों में डालते ये कह कर की जब तक
नैहर का चावल साथ है ना
हमारे घर में किसी चीज़ की कमी नही ...

किसी को ये सुन कर बुरा लगता है की
परवाह किये बगैर

पुरानी ब्लैक न वाइट फोटो में हमारे साथ साथ वाली फोटो है ना
सच वो समय की सबसे रगीन यादों के दिन थे

हाँ पर अम्मा की गोद में तुम बैठे हो
हम आस पास खड़े मुस्करा रहे हैं
हमे हमेशा तैयार जो रखा गया दूर भेजने के लिए

अच्छा वो मोटे काजल और नहाने वाली तुम्हारी फोटो देखकर
तुम्हें चिढाने में कितना मजा आता
तुम्हारी सबसे ज्यादा फोटो है की शिकायत कभी नही की हमने
हमारे लिए तुम्हेई सबसे ज्यादा रहे हमेशा

अब तुम बड़े हो गये हो
तुम्हारे चौड़े कंधे और चौड़ी छाती में
हम चिपक जाती हैं तितलयों की तरह
एक रंग छोड़कर उड़ जाना है दूर देश

कभी आ जाओ न अचानक ..बिना दस्तक दरवाजा खोल दूंगी ..तुम्हारी आहटों को जीया हैं हमने .... 


आज आ जाओ ...आ सको तो ...

२ 


बहनें हमेशा हार जाती है 
की खुश हो जाओ तुम 
जबकि उन्हें पता है जीत सकती हैं वो भी 

अजीब होती है... बड़ी हो जाती है तुमसे पहले 
अपने फ्रॉक से पोछ देती है तुम्हारे पानी का गिलास 
तुम पढ़ रहे हो ..भींग जाता है तुम्हारा हाथ 
पन्ने चिपक जाते हैं 

तुम कितनी भी रात घर वापस आओ 
ये जागती मिलती हैं
दबे पाँव रखती है तुम्हारा खाना
तुम्हारे बिस्तर पर डाल देती हैं आज का धुला चादर
इशारे से बताती हैं ..अम्मा पूछ रही थी तुम्हें
काहे जल्दी नही आ जाते ..परेशान रहते हैं सब

बहनें तुम्हारी जासूस होती हैं ..बड़ी प्यारी एजेंट भी
माँ भी ..की इनकी गोद में सर धरे सुस्ता लो पल भर

बहनें तुम्हारे आँगन की तुलसी होती हैं
तुम्हारे क्यारी का मोंगरा
बड़े गेट के पास वाली रातरानी
आँगन के उपेक्षित मुंडेर की चिड़िया होती है भैया
पुराने दाने चुगते हुए तुम्हारे नए घरों का आशीष देती हैं

हमारी आँखों के कोर पर ठहरे रहते हो तुम
हम जतन से रखती हैं तुम्हें

बहनें ऐसी ही होती हैं ....

Saturday, July 27, 2013

वो दूर होने से डरते हैं ....

पास की नजर ख़राब है 
समाचार पत्र को आँख के 
पास ला के देखते है 
पढ़ते हैं शायद 

मुझे लगा अब वो चीजों को 
दूर करने से डरते हैं 
जैसे पास ही रखे स्टूल को खीचते है बार बार 
बार बार दवाइयों की ख़तम होती पन्नी को 
देखते हैं दबा दबा कर 

अब नही हटती मच्छरदानी कभी चौकी से
एक तरफ से उठा रहता है परदा
फिर भी जाली जाली सा दिखता है
लगा मुझे मलते हैं आँख और भुनभुनाते से हैं

सिरहाने रखे बचे पैसों को
बेचैन होकर गिनते है
जमीन पर गिर पड़े सिक्के को
आवाज के साथ नाचते हुए देखते हैं
फिर खीच सरका के लाते हैं पास

वो पास खीच लाना चाहते हैं
अपने बेटे की आवाज
अपनी बहू की फिकर
अपने पोता पोतियों के खिलौने

अब वो दिवार के बहुत पास हैं
सुनते है आहटों को जो दूर होती जा रही हैं
जमीन के पास है पैर धंसा के चलते से
उदास एकांत की सीटियों से कांपते है

अब आसमान ताकते हैं
आजकल वो अपने आसपास ही रहते हैं

हाँ भाई वो दूर होने से बड़ा डरते हैं ....

Thursday, July 4, 2013

खूंटे से बंधा आसमान

भींगे गत्ते से 
बुझे चूल्हे 
को हांकती 
टकटकी लगाये ताकती 
धूवें में आग की आस 

जनम जनम से बैठी रही इया 
पीढ़े के ऊपर 
उभरी किलों से भी बच के निकल 
जाती है 

धीमी सुलगती लकड़ियों में
आग का होना पहचानती है
हमारी गरम रोटियों में
घी सी चुपड जाने वाली इया

घर की चारदीवारी में चार धाम का पुण्य कमाती
भींगे गत्ते को सुखाती
हमेशा बचाती रहीं
हवा पानी आग माटी
और अपने खूटे में बंधा आकाश ....

Monday, June 17, 2013

तुम्हारे लिए भाई

उदास हो ?पता चल गया
तुम्हारी आवाज का बेगानापन
सब बता गया मुझे

ये छोटे भाई का उदास होना बड़ा अखरता है
सबके हिस्से का प्यार लेकर बड़े होते हैं ये
इनके जनम का महिना और तारिख जीतनी याद नही
उतना याद है उस साल देश दुनियां में होने वाली हलचल
घर में बातें ही ऐसे होती रहती

जिस बरस पैदा हुए थे तुम घर की आमदनी बढ़ी
रागिनी बुवा की शादी का साल था
सात साल बाद उस बरस खूब बारिश हुई थी
बाबा की पछिम टोला की बंजर जमीं पर धान की ओढ़नी फैली थी
अरे हाँ उसी साल घर में आई थी ना टी वी
जैसे तुम्हारे नही होने से रह जाती ये सारी घटनाएँ
वो आगे वाला नया कमरा भी उसी साल बना था भाई
अग्रेजी स्कूल में गये तुम सबसे महंगा बैग था तुम्हारा
तुम्हारे काले जूते को चमकाते और.. वो मांग निकाल कर तुम्हारा बाल बनाते हम
तुम्हारी धूरी पर तो थी घर की खुशियाँ

दुनियां कितनी भी बेरहम हो जाए
तुम्हारे लिए सबके प्यार की छाँव है ठौर है
सर्दियाँ छू ना पाए तुम्हें अम्मा ने तुम्हारे लिए
गरम कपड़ों में धूप सहेजी
घर के चौरे में हरियाली ..अपने आँखों में नदी
और अपने आँचल में अकूत प्यार

मायूसी और उदासी के बीच ही वो प्यार के मोती चमकते है
अब मुस्करा भी दो ..चलो उस तालाब के पास चलो
मैंने कागज की नाव बनानी सीख ली है
सच तुम्हारे रखे पत्थर का भी वजन उठा कर चलेगी
मैं बहती धारा में दूर बह जाउंगी पर जब पिछे देखूं तो तुम
ताली बजाते हँसते हुए दिखना..मंजूर ना ?
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Friday, June 14, 2013

गाँव के रंग ...

गाँव में पुआल 
बचपन ..धमाल 

पुवाल वाला घर 
लुटे हुए आम ..गढ़ही में गिरा ..सुग्गा का खाया 
पत्थर से तोडा की निहोरा से मिला 
पकाए जाते थे 
पर अक्सर पकने के पहले 
खाए जाते थे 

अक्सर पुवाल घर में मिलती थी
नैकी दुल्हल की लाल चूड़ियाँ टूटी हुई
और बिखरी होती थी
दबी खिलखिलाहटें

पुवाल से हम बनाते थे
दाढ़ी मूंछ हनुमान की पूँछ
दुल्हे की मौरी
कनिया की चूड़ी

पुवाल से भरी बैलगाड़ी पर
हम चढ़के गाते थे
हिंदी सिनेमा का गीत
दुनियां में हम आये है तो .....

उस घर के छोटे झरोखे से
दुलहिनें देखती थी हरा भरा खेत
उनके नैहर जाने वाली पगडण्डी
सत्ती माता का लाल पताका और धूल वाला बवंडर

अचानक पुवाल घर को छोड़कर
हम पक्के रस्ते से शहर आ गए

आज भी यादों की पुवाल में पकता है
बतसवा आम ..चटकती ही मुस्कराती चूड़ी
सिनेमा के गाने बदल गए गाँव भी बदल गया बाबा
पर बादल बरसते हैं तो माटी की महक से हुलस जाता है मन
नन्हके पागल ने लगा दी है बचे हुए पुवाल में आग

शहर के आसमान पर वही गाँव वाला बादल छाया है बाबा
अभी अभी हम दोनों की आँख मिली
और बरस पड़े .....

Saturday, June 8, 2013

आदमखोर

एक ऐसा राक्षस 
जो शरीर के बोटी बोटी से 
अपना हिस्सा लेता 

जो बेटी की छाती पर चढ़ कर
छिन लेता उसके पसीने की कमाई 

जो बेटे को बात बेबात लात मारता 
उसके जरा से हाथ में पकडाता कुदाल फावड़ा 

जो गालियों को ऐसे निकालता
जैसे साँसें हों उसकी

वो जो बंद कमरे में बलात्कार करता
अपने पिलिया से पिडित औरत के साथ

वो जिसके कपड़ो से गंध आती
वहशीपने की

जो रातों की रगें दुखाता
जो नदियों को खारा कर देता

वो अपने आदमी होने पर अकड़ता

इंसानों की बस्ती में कुछ आदम खोर आदमी भी हैं
और सुना तेजी से बढ़ रही है इनकी संख्या .......

Friday, May 31, 2013

मेरी चोटी में बंधे फूल ..

तुमने मुझे बेंच दिया 
खरीदार भी तुम ही थे 
अलग चेहरे में 

उसने नही देखीं मेरी कलाइयों की चूड़ियाँ
माथे की बिंदी .मांग का सिंदूर 
उसने गोरे जिसम पर काली करतूतें लिखीं 
उसने अँधेरे को और काला किया... काँटों के बिस्तर पर 
तितली के सारे रंग को क्षत बिछत हो गये 

तुमने आज ही अपनी तिजोरी में
नोटों की तमाम गड्डियां जोड़ी हैं
खनकती है लक्ष्मी
मेरी चूड़ियों की तरह

चूड़ियों के टूटने से जखमी होती है कलाई
धुल चूका है आँख का काजल
अँधेरे बिस्तर पर रोज़ बदल जाती है परछाईयां
एक दर्द निष्प्राण करता है मुझे

तुम्हारी ऊँची दीवारों पर
मेरी कराहती सिसकियाँ रेंगती है
पर एक ऊँचाई तक पहुँच कर फ्रेम हो जाती है मेरी तस्वीर
जिसमे मैंने नवलखा पहना है

खूंटे से बंधे बछड़े सी टूट जाउंगी एक दिन
बाबा की गाय रंभाती है तो दूर बगीचे में गुम हुई बछिया भाग आती है उसके पास
मैं भी भागुंगी गाँव की उस पगडण्डी पर
जहाँ मेरी दो चोटियों में बंधा मेरे लाल फीते का फूल
ऊपर को मुह उठाये सूरज से नजरें मिलाता है .......

Saturday, May 25, 2013

.लेखक का एकांत _14

का खाऊ का पिऊ का ले परदेश जाऊ ....हम कितने डूब कर सुनते ये कहानी ..मुँह खोल कर ..जब कहानी जंगल से गुजरती हम अपनी मुट्ठी भींच लेते ..और जब राजकुमार आता ..हम सरक कर अम्मा के पेट से चिपक जाते ..राजकुमार 

अपने सफ़ेद घोड़े पर सवार हो धूल उडाता चला जाता ..हम आँखें मल कर उसके सुन्दर रूप को देखते ..अब कहानी में एक लड़की होती ..हम अपनी फ्राक में रखी लाइ को खाते खाते रुक जाते ..हाँ अम्मा फिर क्या ?उसकी सौतेली माँ

बहुत सताती ..बर्तन माजना ..पुरे घर का कपड़ा धोना ..भूखे सो जाना ..हमारी गौरैया सी आँखों में मोटे आंसू आ जाते ..अम्मा अपने पेट पर लेटा लेती ..सहलाती ..कहानी है बाबु ..फिर एक माली की लड़की पर राजा का मन आ गया पर लड़की का मन ?.....कौन पूछता है ...क्यों नही पूछता ?अम्मा चुप लगा जाती ..दिवार पर जाला लगा है कल साफ़ करना होगा बडबड़ाती....हम मछरदानी में घुस आये मछर मारते ...हाँ अब आगे ...फिर क्या ..अच्छा वो सात भाई वाली कहानी अम्मा ...हाँ हाँ जब सातवां भाई अपनी चिरई सी बहन को अपनी जांघ चिर कर छुपा लेता ..बाप रे .हम अपने भाई का मुंह ताकते..वो इशारे से कहता सब कहानी है ..कोई ऐसा नही करने वाला ..और हमारी चोटी खिंच लेता ...अब दूसरी कहानी में सौतेली माँ भाई बहन दोनों को कटवा कर जंगल में फेंकवा देती ...हमारी आँख बड़ी खुल जाती ...अब भाई बहन बेला चमेली बन जाते ..हम एक दुसरे के को जोर से पकडे होते ..कहानी के दुःख ने हमे दुखी किया ...प्यार ने करीब ..अम्मा किअतानी ही बातें ऐसी कह जाती जिनके अर्थ बाद में खुलने लगे ..जैसे रजवाड़े में व्याही लड़की का अकेलापन ..जैसे आम के बगीचे में भागती हवा का पिंजरा ..भाई के दूर होने दर्द ..ससुराल जाने वाली लाल चिरैया की कहानी ..कम पढ़ी लिखी अम्मा ने ही हाथ पकड़ कर क की कवायद सिखाई थी ..आम में पीला रंग भरा था ..आँखों में आकाश भी ..काले काजल का बादल भी ..संवेदना की नदी भी ...

यही माटी मे शरीर माटी होए वाला बा सबकर .... ..तुम माटी बन गई राख बन उड़ गई नदी बन बह चली कही और किसी और जगह ..पता है होगी कही ..चारो बगल बच्चों को बैठा कर ..तार काटो तरकुल काटो ..की मामा हो मामा चीटिया क झगडा ..वाला खेल खेल रही होगी ..मेरा बेटा मेरे बगल में खेल रहा है ..दिवारों पर बहुत गहरा जाला है ..या की दिख नही रहा कुछ साफ़ साफ़ ...तुम कहानी बन गई ना ...

लेखक का एकांत _13

मैं तुमसे मिलना ही नही चाहती के तेवर को तुम समझते और नही आउंगी के सच को झुठलाती दिन के सबसे गरम समय में पैर पटकती उस उपेक्छित तालब की सीढियाँ उतर जाती ..तुम्हारी आँख की मुस्कराहट पानी में खिले एक्का दुक्का उन कमल के फूलों को कुछ और गहरे रंग जाती ..हाँ बोलो क्या बोलना है ? कुछ नही में वो सर हिला देता ..पता था ..नही आउंगी बोल कर मैं आ जाउंगी..कुछ नही बोलना है की चुप्पी को तोड़ने के लिए फिर मैं बात भी करुँगी...तुम्हारे इशारे में तुम्हारी कहानियाँ छुपी होती ..लाल आँखों में गई रात नींद नही आने की शिकायत ..पढ़ाई नही हो पा रही है के शिकन से तुम्हारे माथे पर पड़ता बल ..तुम्हारे चुप रहने से मैं बातें करती ढेरों तमाम ..तुम हाँ हूँ कर सब सुनते ..मेरे कलाई में पड़ी उस लोहे की चूड़ी को घुमाते रहते .

.तालाब का पानी इतना गरम की हाथ सिंक जाए .फिर भी उन बैगनी कमल के फूल की मुस्कराहट को नही चुराता कोई ..हम जितनी देर वहां होते सूखे पत्ते गिरते तेज हवा से तालाब के पानी पर झुर्रियां सी पड़ जाती ...हमें मौसम सिखाते हैं ..वो मेरी गुलाबी हथेलियों को अपने रूखे हाथो में कुछ देर पकड़ कर रखता ..मन के अन्दर के मौसम के बदल जाने का समय होता वो ..तुझे तेज धूप में आना पड़ता है ना मेरे लिए ..गाल तप से जाते ...हाँ तो..अब आगे से नही आउंगी ...बहोत गरमी है ..वो अपने कमीज के निचे रखी एक किताब निकाल कर मुझे देता ..तुम्हारे लिए ....आज ही लाइब्रेरी से ली चार दिन बाद लौटना होगा ...हम्म ..तो चार दिन बाद फिर आउंगी मैं यही ना ..चा..र ....दि.न ...आ जाना ना ................(झुलसाती गरमी में चन्दन सी यादें .. )

Tuesday, May 21, 2013

एकांत में अतीत _12

जब साडी पहननी नही आती तो पहनी क्यों ?मैंने फिसलते प्लेट्स को मचोड कर खोस लिया ..काम वाली बाई भी इससे अच्छा पहन ले ..मेरी निगाहें नीची ..ट्रेन भाग रही थी ..वातानुकूलित डिब्बे में आवाज कम आती है ..मैंने पहली बार उस डिब्बे को अपनी खुली आँखों से अन्दर बैठ कर देखा ..जब हम बच्चे थे तब कैंट सटेशन पर अपनी सादा लाल गाडी का इन्तजार करते हुए जब कभी ये शीशे बंद डिब्बे हमारे सामने रुकते हम उचक कर देखते .कुछ नही दिखता सा दिख जाता ..अम्मा बताती वो विदेशी लोग जाते है ..आज मुझे पहली बार एक विदेशी के साथ उसी बंद डब्बे में बैठाकर भेजा जा रहा है ..बम्बई ..फोटो में देखा था ..सिकुड़ कर एक कोने में हो ली थी ..लम्बे बालों का हेयर बैंड बार बार खुल जाता ..चटक लाल सिंदूर से भरे मांग को वहां लगे शीशे में देखना बड़ा अलग सा लग रहा था ..पर बार बार निहारूंगी तो क्या कहेंगे सब ..फिर मुहं गाड लिया और कादम्बनी देखने लगी ..उल्ट पलट ..हाथ को बार बार खिड़की के शीशे पर रखती ..कोई उपाय नही ..हवा से हाथ नही लड़ा सकती अब..पुड़ी भुजिया खाने की जगह केटरिग से खाना आया ..मुझे आता था खाना खाना पर उस दिन सब गड़बड़ हो रहा था ..पति ने परदा लगा दिया ..बाबा रे ..परदा ट्रेन में ..अब ससुर ने तौलिया बिछा दिया ..मैं लल्लू की तरह सब बात मान रही थी .

.पहली बार मुझे लगा दिमाग नही मेरे पास..मेरा सञ्चालन अब मैं नही कर रही ..बस सांस लेने का काम मेरा ..हे प्रभू ..पांच मीटर की साडी ..अरे कम्बखतों ..कोई तो पुराने कपडे रख देता की बदल लेती ..ये सफ़र बड़ी मुश्किलों से तय हुआ ..और तय ये भी हुआ की मुझे अकेला ना छोड़ा जाए की मैं इधर उधर टहल न लूँ..और कुछ सलवार कुरता खरीद दिया जाए ..दूसरा निर्णय सही था ..अब मैं बम्बई..महानगरी से ...पूरा बम्बई स्टेशन मुझे लेने आया था क्या ..नही नही लोकल की भीड़ है ..मेरी सिड्रेला वाली चप्पल को बर्थ के बड़े निचे से निकालते हुए पति ने घूर के देखा मैं बिछिया ठीक करने लगी ..हाँ तो कई लोग आये थे ..बड़े लोगों के यहाँ के रिवाज में मैं नहा रही थी ..हाई भाभी ..यु आर सो स्वीट ..आसमानी पप्पी और झप्पी ...किसी तरह से इन आतताइयों से छूट कर मुझे कुछ कपडे दिलाते हुए मुझे अपने घर में लाया गया ..ससुर ने कहा मोस्ट वेलकम ..ये अग्रेजी कुछ देर और चली न तो मैं चल दूंगी ..मन में सोचा .

.घर में सभी सामन अपनी जगह पर रखा गया मुझे भी ऐसा करने को कहा गया ..इधर चप्पल..इधर पर्स इधर कपडे ..ये बाथरूम ये रसोई ये बेड रूम यहाँ चाभी रखी जाती है ..उस बंद डिब्बे में विदेशी जाते हैं ..अब मैं बहुत दूर आ गई ..गला भरने लगा ..कहाँ जा कर रो लूँ ..लडकियां कितनी सहज होती है ना जिस माटी में २० साल खेली पलीं बढीं उन्हें जड़ समेत कही और रोप दिया जाता है ..नए बीजों का माटी में खो जाने का जी करता है ..पर नइ उम्मीद नए प्यार के छीटों से वो फिर गहरे जड़ बना लेती हैं ....उनकी उदासियाँ बड़ी बेआवाज होती है ..समझो उन्हें भी ..बंद शीशे के विदेशी डिब्बे से तुमने मुझे बड़ी दूर भेज दिया भाई ..हमारे बचपन की हथेलियों के छापे दिखाई देते है इसपर .जो हम उचक कर लगाते थे ..मैं इसमें जब भी बैठती हूँ सबकी आँखें बचा कर तुम्हारे खाली हाथ पर अपने हाथ रख देती हूँ ...

Friday, May 17, 2013

एक लेखक का एकांत -11

त्योहारों की मौसमों की टिकटें नही बंटती सूखे हरे पत्तो का टूटना बिखरना हवाओ का रूठना मान जाना हमे अपने आप में रंग लेता है ..सुबह गुलमोहर के चटक खिले रंग इठलाते से कहते हैं ..देख क्या रहे हो कल नही था आज हूँ जी भर के रहूँगा ..आज ये बात पेड़ की सबसे ऊँची वाली टहनी पर तिरंगा लहराते हुए कहीं है इसने कल पैरों तले मुरझाया सा भी अपनी अकड में चरमराएगा ..फिर आऊंगा देखना ..तुम भी मौसम से लिपट जाते हो हर रंग में ..रंग बेरंग से रास्ते होते है बुद्धू ! मंजिल तो नही ..समय का आना जाना अपने आप को बताता नही अपने आप के साथ बहा ले जाता है हमें ..आज नदी के सूखने से भरी रेत वाली आखें कल झील सी छलक भी जायेंगी ..इन्द्रधनुष को पुरानी डायरी में बंद किया था.. आज बड़ी उमस थी... वो पन्ना खोला की बादल बरस पड़े ..

मौसम की टिकटें होती ना तो मैं बसंत के सारे शो अपने और तुम्हारे लिए बुक कर लेती ..

Monday, May 13, 2013

एक लेखक का एकांत _10

उलाहना ..हमेशा ..घर के अन्दर का परायापन सालता है ..अपने हो ना ..हक से कहो जो चाहते हो कहना .बेजुबान गाय बाँध ली हो जैसे ...बदलते समय में सोच का मानचित्र जरा कम तेजी से बदल रहा है ..उसी पुरानी परिपाटी पर तुम आवाज लगाओ की सामने आ जाऊं मैं ..तुम्हारी तरेरती आँखें से सारा दिन डरी रहूँ की क्या गलत हो गया...जिंदगी जीने के हक का बंटवारा नही किया कभी किसी ने आधा आधा ..जगह दो समय दो इज्जत एक दुसरे के काम के नाम को..सराहो जरा .

.मन के अन्दर टूटने वाले शीशे हर रोज गडते हैं ..उसके नुकीली किरचों से बच पाना आसान नही..मैं अपनी पहचान हो तड़पती रहूँ तुम घर के दरवाजे बंद कर दो ..मैं जा सकती हूँ..जिंदगी जीने का हुनर है मुझमे ..सिखा है..पर साथ ये भी की सब संभाल कर भी तो वो करू जो चाहती हूँ करना ..पल्लू से बंधा बच्चा जीने की वजह भी है बंधे रहने की वजह भी ..हमारे बिच कितना कुछ टूट जाता है .पर जीते हैं हम घर के भरम में ...

.(तमाम घरों का शून्य बोलता है मेरे एकांत में . )

Sunday, May 12, 2013

एक बेटी का एकांत .9

अम्मा ,

तुम्हारी साड़ी बांटी जा रही थी ..अटीदार पटीदार के लोग घर की बहुवें बेटियां ..वो एक बेरंग समय था अलमारी की चाभी एक वृत्त में झूल गई थी दरवाजे खुले थे तुम जा चुकी थी ..सिन्धोरे में कस के बंधा वो लाल धागा ..तुम कहती ये तागपात का धागा है सिन्धोरे में बाँध कर रखते है..अखंड सौभग्य ..सुहागिनों ने सिंदूर लिया वो अमृत कलश सा भरा रहा बाद तक भी ...तुम्हारे दुनियाभर के भगवान् की छोटी बड़ी मूर्तियाँ कलेंडर पर लिखा तुम्हारा दूध का हिसाब सब अपनी जगह पर था ..बस हम अपनी जगह से हिल गए थे .

.रिवाजों के तेरह दिनों में पिताजी ने कभी नही देखा तुम्हारी फोटो की ओर ..५० साल का साथ उनके मन में कितने बसंत की खुशबू छोड़ गया होगा ..तुम उस बड़े फ्रेम से बाहर हो ..आसमान के बुझेतारे भी जल गए थे उस रोज़ जब अंतिम मंत्रोचार से तुम्हें आखिरी विदा कहा था उन २१ पंडितों के ओज से स्वर के साथ तुम सबको अपने अकवर में ले रही थी ..यूँ तो हमारे जाते समय तुम फेर लेती थी खोइछा का चावल पांच बार ये कह कर की आती रहना ..पर इस विदाई हमने नही डाला वो चावल जो वापस कर कहते तुमसे की आना अम्मा ..

लाल माहवार वाले पैर का छापा बाबा की टूटी मड़ई में था आज पिताजी के विशाल घर के दरवाजे को छोड़े जा रहा था ..जिंदगी का सच यही ..पर झूठ ये की नही हो तुम ..तुलसी के पत्तो पे चिपका है पीला सिंदूर ..तुम्हारे लगाये अमरुद पर कोमल पत्तियां निकली हैं कुछ साड़ियों के रंग से भरा है तुम्हारा बक्सा ..त्योहारों पर बोल पड़ते हैं पिताजी आज कुछ ख़ास बनाया जाए ..भाभी के छम छम में गूंजती है तुम्हारी हंसी .बनारस के रिक्शे पर सवार तुम अभी अभी गई हो गंगा की ओर.......आ जाना हाँ ??? सब कह रहे हैं आज मदर्स डे है .....(व्याही लड़कियों का एकांत बड़ा दुसह होता है अम्मा . )

Thursday, May 9, 2013

एक लेखक का एकांत _7

कागजों पर लिखा सच तीर सा चुभा .पलकें बार बार झपकाई जो पढ़ा क्या सच है? .कागज धुलता रहा अक्षर कुछ और साफ़ दिखने के बजाय बुझने लगे .मंदिर की सीढियों पर बैठ गई .संभल लूँ तो आगे की सोचूं .मिलने के कितने गीत विछोह का मौन रुदन 

.जहाँ लगता है सब ख़तम हो गया सच वही से सब शुरू होता है .मेरी अगुलियों में फसी अंगूठी कुछ कस सी गई है जल्दी निकाल दूंगी .सूना दाग सा पडजाता है .कुछ रंगीन सपनों का साझा मेरी आखों में तैर रहा है वो भी बह जाएगा धीरे धीरे ..बजने वाले फ़ोन के सभी नम्बर अजनबी है .कही तुम्हारा नम्बर भी है रोकने की तमाम कोशिश की मैंने पर एक बार बस तुम्हारी आवाज सुन लूँ का मोह नही त्याग पाई ..यह नम्बर अस्थाई रूप से बंद है ....बड़ा धार था इसमे ..कलेजा कट गया ..

मन में एक जंगल है वीरान बस एक हरा पेड़ है जहाँ मैं और तुम बैठते थे ..तुम्हें पता है प्यार ही बचाएगा इस हरे को कुछ हरी पत्तियां गिर रही है उदास बेआवाज ..मैं अकेला होने से बड़ा डरती हूँ तुम भी जानते थे ..बेजान सी डगर है ..रास्ता भूल रही हु ..हाथ का कागज़ चिंदियों में तब्दील है .

..तुम्हारे भेजे अक्षरों की आग में कविता जल रही है ..कभी सुनना ये कहानी ...पहचनाने वालों में वो पेड़ भी थे जिसपर बंधे धागों में घुमती रही थी धरती गयारह चक्कर ..

Monday, May 6, 2013

एक लेखक का एकांत _6

नदी के सामने रहो ..कुछ ख्याल बहते हैं उसमे .कुछ उदासी गोते लगाती है .दुःख की छटपटाहट उसकी नन्हीं तरंगो में दिखती है .बनारस के घाट की सीढियों पर शाम की भीड़ में अपने लिए चुनी हुई अकेली सीढी पर हम अपनी जिंदगी से हारते जूझते कुछ देर यहाँ बिता देते ..नदी साथ है हम जितनी दूर देखते है रंग दिखाई देते है डोलती डोंगियों से टकराता दीया ..अपना रास्ता चुन लेता है .पांच डूबकी में धुल जाने वाले पाप, दान का पुण्य ,माथे का टिका, ललाट पर दिव्या चन्दन, गोरों की गिटपिट को पछाड़ते मल्लाहों के अल्हड किशोर,

महंगे कैमरों में कैद होती गरीबी.. खाली पड़ी थाली के सिक्के कोढ़ से खो गए हाथ पैरों वाले भिखारी सिंदूरी धोती में गंगा आरती करते गरिमामय पंडित ..आँखें जो देखना चाहती है वो द्रश्य है ..नदी को छूटे हम काँप जाते है या नदी तुम सोचो ..हैरान करते सवालों का जबाब है नदी के पास .अकेलेपन की गहरी उदासी में सोचो तो कहीं भी रहे तुम्हारी आँखें से निकल पड़ती है ..

जीवन औए मरण का संगम है यहाँ .चिताओं की ठंढी पड़ी राख जब नदी में तैरती है आचमन की अंजलि में भर जाती है कुछ अदृश्य उदासी ..तमाम लोगों ने मन्नतों की चुनरी चढ़ाई है ..पर कितने ही बुझ गए तुम्हारी गोद में ..मेरी उदास सीढियों से छप कर टकराती हो तुम ..एक सा दुःख ना ..एक सी उलझन ..बचेंगे तो बहते रहेंगे जिंदगी की रगों में जिंदगी बन ....

Friday, May 3, 2013

किताबों की बातें

मामा हमे बड़ी मेहनत से अग्रेजी सिखाते ..ता है ती है से वर्तमान का बोध ..था है थी है से भूत का ..और रहेंगे खायेंगे से भविष्य का बोध कराते..पर हमारे अबोध मन को कुछ समझ नही आता ..तब के पेपर में १० मार्क का ट्रांसलेशन आता ..दस लाइन आती ..हम खूब मेहनत से ३६ नम्बर लाने की कोशिश करते ..

जैसे हम रटते..वन्स ओपोन अ टाइम देयर वास अ किंग ..पुरे छत में घूम घूम कर रटते ..अम्मा बड़ी हसरत से हमे अग्रेजी में महारथ हासिल करते देखती ..तरह तरह की गाइड कुंजी होती हम सब पढ़ते ..पर मुझे एक बात तब से आज तक सता रही है ...रामायण में जितनी बार राम का नाम आया उससे ज्यादा बार ट्रान्सलेसन में आता ..रहीम के दोहों से ज्यादा रहीम भी रहते राम के साथ ..हमेशा राम एक अच्छा लड़का है ..रहीम बाजार गया ..और हाँ रमेश का भी सहयोग पूरा होता ..

ये तीनों नाम ..का हज़ारों उदहारण मिल जाता इतना की ..व्हाट इस योर नेम ?पूछने पर हम अपना नाम राम ही बता देते ...जिसका नाम रहीम हुआ करता वो भी अपना नाम राम बता देता ...अब उतना ही रटा था सबने ...अग्रेजी ने बड़ा परेशान किया...लाल आँखें हो जाती हमारी पर परीक्छा के कॉपी नीले नही होते ..has been..have been का प्रयोग कभी सही तरीके से करना नही आया ..ऐसा होता तो क्या होता से ज्यादा ..अब ऐसी ही हैं तो क्या करें ..पर अड़े रहे ...

नाम में क्या रखा है क्या डाइलोग मारते रहे हम ..मन के अन्दर जो बातें रह गई वो इतनी ..की राम रहीम एक साथ रह सकते है ..अच्छे दोस्त बन सकते हैं ....जार्ज और पुष्पा की खूब बन सकती है ..रामू हमेशा चाय नही बनाएगा ..सिर्फ पिताजी ऑफिस नही जायेंगे मम्मी भी जायेंगी ..सिर्फ भाई अपने बहन की रक्षा नही करेगा ..बहन भी करेगी ..गीता हमेशा नही रोती रहेगी ...अम्मा हमेशा खाना नही बनाएगी ..अपनी भाषा में हम सपने देख सकते हैं ..प्यार कर सकते हैं ..हमे तो यही पसंद है ..आप इसपर भी गर्व कर सकते हैं ..की हाँ हिंदी हैं हम ..

.उदाहरणों को बदलना पड़ेगा ...समय बदल गया ना ..मुझे जब भी जो सिखाया जाता मैंने हमेशा उससे परे ही बातें सिखी ...फडफड अग्रेजी बोलते हमारे ही बच्चे हमसे आगे चलते है ..जरुर सीखो ..खूब सीखो ..पर अपनी जमीं पर रहो ...मामा !कभी नही आया हमारा अच्छा नम्बर ..पर कोई बात नही ... मिल जुल कर रहना आया ..सभी धर्म और जाति से अपना पन सिखा ..आखिर ये हमारी एक ही किताब में ही तो थे .....

होली हमारे देश का एक रंगबिरंगा त्यौहार है ..हम एक रंग में रंगें हैं ..ओह किताबों में बातें नही होती थी लिखी ..उनके मर्म हुआ करते ..सिर्फ ३६ नम्बर लाने के लिए मत पढना .......thank यू मामा...:)

Sunday, April 28, 2013

मर्म से मर्म तक ...


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Wednesday, April 24, 2013

संस्मरण, एक रेखा चित्र ...

सालाना परीक्षा ख़तम होने का यही महिना हुआ करता .हम गाँव जाने की तैयारी में लगे होते अपने कुछ शहरी ताम झाम के साथ ..जैसे धूप वाला चश्मा ..बड़ी वाली हैट .रंगीन पेंसिल कागज़ ..और अम्मा का चाय का थर्मस ..रात की पसिंजर ट्रेन ..रात में हम चार भाई बहनों की पुड़ी अचार पुड़ी भुजिया खाने की होड़ लगी होती..तो कभी चम्पक और नंदन की कानी गिलहरी नामक कहानी का मुक्त कंठ पाठ ..

हम तो अपना हाफ फुल टिकट का पुराया किराया वसूलते .वो भागते पेड़ो की गिनती ..चाँद का गाडी से भी तेज रफ़्तार में पीछा करना ..पुल से गाडी की आवाज ..रामनगर का रेत वाला घाट ..हम उस अँधेरे में ही इंगित करते ..आखिर बनारस को तो बंद आँख से भी जी सकते थे हम..

फिर आती ऊपर के बर्थ की बारी उसपर तो मानो हमारा by birth कब्ज़ा हो ..कभी चादर बिछाते लटकाते लटकते हवा वाली तकिया के लिए खीचतान करते हम ठीक ४ बजे मऊ नाथ भंजन पहुच जाते ..ओघियाये समय में काला चश्मा लगाते कभी थर्मस कंधे पर टांगते ..अपने को खड़ी हिंदी में जरा अलग दिखाने की कोशिश करते..

हम अपने साथ अपने सीखे अग्रेजी शब्दों को भी ले चलते जैसे stand up,sit down,bad.good.आदि जिसमे शब्दों को जल्द से जल्द इस्तेमाल करने की कोशिश में हम किसी भी मटमैले बूढ़े आदमी औरत को देखते bad बोलते ..सुनने वाले चचेरे भाई बहन बड़ी बेचारगी से हमे देखते ..

पर कुछ घंटे में ही हमारी अग्रेजी किसी इतर की शीशी में बंद हो जाती .रात सारे भाई बहन कई चौकी जोड़कर एक साथ सोते ..फिर वहां की कहानियां चादर के निचे फुसफुसाते शुरू हो जाती ..हु हु करती बसवारी .पकड़ी के पेड़ की चुड़ैल ..कुआँ से आती अघोरी बाबा की आवाज ..हम उस मिटटी में भीगने लगते..चाची के बार बार बबुनी कहने की मिठास ..छोटकी दादी का बालों में तेल लगाना ..चक्की पिसती औरते एक गीत गाती जिसमे विदेश गए पति को देखने की मिन्नतें होती ..वो बात ना समझ आई हो भले ..पर उनके उदास चेहरे हमारी आँखों से कभी ना बिसरे..चाचा के साथ बैलगाड़ी से खेत जाना ..चाचा आरा हिले पटना हिले बलिया हिले ला ..के गाने से अपनी गाँव की भौजी को छेड़ते और मुस्कराते ...

दो दिन में हम उनके प्यार के रंग में रंग जाते ..वहां से पूरा आकाश दिखता ..झक तारों के निचे हम सोते हुए सपनों की बातें करते ..एक दुसरे से ऐसे चिपक के रहते की जैसे कभी अलग ना थे ...बाबा को रात सोते समय ..नन्हा मुन्ना राही हूँ देश का सिपाही हूँ .. ये गाना सुनाते ..बाबा ख़ुशी से गदगद हो मुझे अपने पास खीचते अपने गमछी से मेरा हाथ मुँह पोछते और कहते..खूब होनहार बाड़े ते ..पढाई में फस्ट आवे के बा ना तोरा ?

हाँ बाबा जिंदगी आप सबसे बहुत दूर ले आई हमे .फस्ट भी आया किये ..गाँव का पेड़ कट गया है ..बाबा नही रहे ..पगडण्डी पर दौड़ लगाता बचपन किसी धुंध में डूब गया है ..

आसमान पे कितने तारे किसने देखा ?हाँ हमने देखा था ..समय नया खेल खेला रहा है बाबा ..अब ओल्हा पाती से डालियां टूटने पर दर्द हो ऐसे लोग नही ..अब तो खड़े पेड़ कट रहे .काला चश्मा लगाकर हम शहरी हो गए बाबा ..पर कैद आँखों में लहलहाती है सत्ती के खेत वाला गेहूं का धान ..बाजरे की बाली ..
आम की कोयल बोलती है बाबा तब शहर का ट्रेफिक जाम हो जाता है ..

Sunday, April 21, 2013

ये क्या जगह है दोस्तों

१ 


लड़की फटे चिटे कपड़ों में नही 
फटे चिटे शरीर में 
घूम रही है 

जी रही है शायद 
मर भी सकती है 

उसकी लाश के आस पास 
आंसुओं के खूब सारे 
कैक्टस उगे है 

अब उन जहरीले काँटों में 
दो गुलाबी पत्ते मुस्करा रहे हैं 

तुममे से ही कोई एक 
फिर चिर डालेगा उसे .....



२ 


नोंच लो इस डोर से 
उस डोर से 
नोंच लो इस छोर से उस छोर से 

इस गली की या 
शहर के पार की हूँ 
कट गई या काट दी जाऊं किसी दिन 
एक लूटो या जमाना साथ ले लो 

मैं किसी भी उम्र में 
एक देंह हूँ बस ..तुम शिकारी 

रंग के चिथड़े उड़ा कर 
सांस भी लेते हो कैसे ?

Friday, April 19, 2013

एक लेखक का एकांत _5

आज भूख नही ...मन नही खाने का ..अच्छा क्या बना है ?नही नही ये तो बिलकुल नही खाना ...ऐसे सारे नखरे सिर्फ तुम उठाती थी ..कितने विकल्प जोड़ती ..ये खा लो ..एक टुकड़ा खा कर तो देखो ..देखो मामा कौर है इनकार नही करते ..दो मिनट में नमकीन पुडी बना देते हैं ..अचार के साथ खा कर देखना ..

.तुमको क्या हो जाता ..कुछ न कुछ खिला कर ही मानती ..तुम्हारी नाभि से जोड़कर ..अपने को निचोड़कर ..तुमसे हममे सब कुछ चला जाता ..शादी के बाद हम एकदम से औरत बन जाते हैं तुम्हारे जैसे ..अब हम नही कहते की मन नही खाने का ..पता है कही कोई जबाब नही बचा ..कहीं कोई विकल्प नही ..नही कोई खिलायेगा मामा वाला कौर ..

बेटा पढाई कर रहा ..पति नौकरी करने ..मन अनमना हो रहा है ..कुछ खाने का मन नही

..परदे के पिछे छुपी तुम आवाज देती हो ...आज रामनवमी है ..त्यौहार का दिन ऐसा नही करते ...दाल की पुड़ी पसंद है ना ..आओ खिलाते हैं ..

मैं लगातार उस निले परदे के पार झाकने की कोशिश में हूँ ...बादल है ..कुछ दिखाई नही देता ..तुम भी नही ..आवाज का आँचल बार बार ढँक लेता है मुझे ..मेरे मुँह में लगा जूठा खाना पोछकर चली गई तुम ..तुम कभी नही रुकी ..कभी भी नही ना ...

Thursday, April 18, 2013

मज़बूरी ..एक रंग ऐसा भी


लालटेन पेट्रोमेक्स के
पिले उजले रोशनी में
लड़की लट्टू की तरह
नाच रही है

तेज महक का पावडर
लाल परांदे में
उलझ सुलझ रही
आप ही आप

चोली पर उड़ता गिरता दुपट्टा
"रेशमी सलवार कुरता जाली का .....
पेड़ के पंछी दुबके हैं
बसवारी सुन्न सन्नाटा
१० ५० के नोट के साथ
जवान आवाजे हवा में
झूम रहीं है

सिवान जिला का मुन्नी बैंड बड़ा फेमस है
बामहन टोली तुरह पट्टी मिसरौरीसे से  जमा हुए हैं लोग

नाच बैंड की धुन पर पगड़ी हवा में
लहरा कर नचनियां का दुपट्टा अपने मुह पर ओढ़कर
किसन चाचा भूल रहे हैं अपना अकेलापन
बंसी भैया के जवान बहन की शादी
सूखे से बंजर पड़ी जमीं
जवान बुवा का विधवा होना
टूटे खपरैल की मरम्मत
सब दुःख पानी ..जरा सी देर को जी रहे हैं सब

उधर नाच एकदम तेजी पर ..आँखों से तुमको शराबी बना दूँ ..
लड़की थक के चूर ..सवेरा होने को है ..नाच ख़तम
पावडर की महक ख़तम सूखी लाली ..लड़की के शरीर पर
रेंगती है हजारों बिच्छू सी उंगलियाँ ..उबकाई आती है

गाँव वालों के दुखो के गहरे कुवों में बिन पानी के झूल जाती है
खाली बाल्टी ..मन में तेज नाचती है रात वाली लड़की
सबकी अपनी अपनी मज़बूरी ..जीने का सहारा

रात भर जली लालटेन के शीशे काले पड गए है अब ...

Wednesday, April 17, 2013

एक लेखक का एकांत _4

अचानक आप दोस्त बन जाते हैं .और लगातार आपकी आवाज आस पास बनी रहती है .कभी भी कहीं भी ...क्या कर रही हो ?खाना खा लिया?धूप है बाहर मत जाना ..आज कौन सा रंग पहना ..तुम्हारे शहर में मेला लगा ..भीड में खो जाने का डर तुम्हारे शहर को है ..मैं एक ऐसे रिश्ते के साथ चुपचाप बह रही हूँ..

मेरा दुःख उसका ..मेरे गाने की मिठास से मीठी हो गई उसके सुबह की चाय ..उसे नही पता कई बार कितनी विकट स्थितियों में मैंने उससे बात की ..वजह की वो उदास न हो जाए ..उसने मेरे दुःख में मेरा होकर उपवास रखा ..मेरी मुस्कराहट में भींग कर अपने दिन की शुरुवात की .अब अधिकार से बातें कही जाने लगी ..की तुम्हें नही तो किसे बताऊ ....

मैं लगातार समझ रही हूँ ..तुम्हारा होना ..अपना खोना ..की अचानक ..इस रूट की सभी लाइने व्यस्त है के तर्ज पर ..तुम्हारा शहर दूसरी तरफ रुख कर लेता है .तुम्हारी आवाज दूर से भी नही आती ..अचानक उग आये है तमाम कोमल पौधे तुम्हारे आस पास जिसकी परवरिश करनी है तुम्हें ..मैं धूप में हूँ ..मेरे चुप्पी में टूटती है एक और चुप्पी ..सब बेआवाज ..

मैं वजह जानने की कोशिश में शिकायत करती हूँ ..तुम निर्णय सुनाते हो ...लगातार काम है मेरे पास व्यस्त हूँ ...

मौसम भी दस्तक देकर बदलता है साहेब ..चलो कोई बात नही ..

कुछ लोग पैदा होते है दूसरों का एकांत पाटने के लिए ..दर्द सोखने के लिए ..मेरे गाने में मिठास है .मेरी आँखें खूब छोटी पर गहरी है ...बात में नमक है ..तुमने अपने उदास दिनों में इन्हें चादर की तरह ओढा ..हां अब गर्मी है ..उतार फेकों ..चादरे यू भी ओढ़ी मोड़ी और सुखाई जाती है ..