Sunday, April 28, 2013

मर्म से मर्म तक ...


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Wednesday, April 24, 2013

संस्मरण, एक रेखा चित्र ...

सालाना परीक्षा ख़तम होने का यही महिना हुआ करता .हम गाँव जाने की तैयारी में लगे होते अपने कुछ शहरी ताम झाम के साथ ..जैसे धूप वाला चश्मा ..बड़ी वाली हैट .रंगीन पेंसिल कागज़ ..और अम्मा का चाय का थर्मस ..रात की पसिंजर ट्रेन ..रात में हम चार भाई बहनों की पुड़ी अचार पुड़ी भुजिया खाने की होड़ लगी होती..तो कभी चम्पक और नंदन की कानी गिलहरी नामक कहानी का मुक्त कंठ पाठ ..

हम तो अपना हाफ फुल टिकट का पुराया किराया वसूलते .वो भागते पेड़ो की गिनती ..चाँद का गाडी से भी तेज रफ़्तार में पीछा करना ..पुल से गाडी की आवाज ..रामनगर का रेत वाला घाट ..हम उस अँधेरे में ही इंगित करते ..आखिर बनारस को तो बंद आँख से भी जी सकते थे हम..

फिर आती ऊपर के बर्थ की बारी उसपर तो मानो हमारा by birth कब्ज़ा हो ..कभी चादर बिछाते लटकाते लटकते हवा वाली तकिया के लिए खीचतान करते हम ठीक ४ बजे मऊ नाथ भंजन पहुच जाते ..ओघियाये समय में काला चश्मा लगाते कभी थर्मस कंधे पर टांगते ..अपने को खड़ी हिंदी में जरा अलग दिखाने की कोशिश करते..

हम अपने साथ अपने सीखे अग्रेजी शब्दों को भी ले चलते जैसे stand up,sit down,bad.good.आदि जिसमे शब्दों को जल्द से जल्द इस्तेमाल करने की कोशिश में हम किसी भी मटमैले बूढ़े आदमी औरत को देखते bad बोलते ..सुनने वाले चचेरे भाई बहन बड़ी बेचारगी से हमे देखते ..

पर कुछ घंटे में ही हमारी अग्रेजी किसी इतर की शीशी में बंद हो जाती .रात सारे भाई बहन कई चौकी जोड़कर एक साथ सोते ..फिर वहां की कहानियां चादर के निचे फुसफुसाते शुरू हो जाती ..हु हु करती बसवारी .पकड़ी के पेड़ की चुड़ैल ..कुआँ से आती अघोरी बाबा की आवाज ..हम उस मिटटी में भीगने लगते..चाची के बार बार बबुनी कहने की मिठास ..छोटकी दादी का बालों में तेल लगाना ..चक्की पिसती औरते एक गीत गाती जिसमे विदेश गए पति को देखने की मिन्नतें होती ..वो बात ना समझ आई हो भले ..पर उनके उदास चेहरे हमारी आँखों से कभी ना बिसरे..चाचा के साथ बैलगाड़ी से खेत जाना ..चाचा आरा हिले पटना हिले बलिया हिले ला ..के गाने से अपनी गाँव की भौजी को छेड़ते और मुस्कराते ...

दो दिन में हम उनके प्यार के रंग में रंग जाते ..वहां से पूरा आकाश दिखता ..झक तारों के निचे हम सोते हुए सपनों की बातें करते ..एक दुसरे से ऐसे चिपक के रहते की जैसे कभी अलग ना थे ...बाबा को रात सोते समय ..नन्हा मुन्ना राही हूँ देश का सिपाही हूँ .. ये गाना सुनाते ..बाबा ख़ुशी से गदगद हो मुझे अपने पास खीचते अपने गमछी से मेरा हाथ मुँह पोछते और कहते..खूब होनहार बाड़े ते ..पढाई में फस्ट आवे के बा ना तोरा ?

हाँ बाबा जिंदगी आप सबसे बहुत दूर ले आई हमे .फस्ट भी आया किये ..गाँव का पेड़ कट गया है ..बाबा नही रहे ..पगडण्डी पर दौड़ लगाता बचपन किसी धुंध में डूब गया है ..

आसमान पे कितने तारे किसने देखा ?हाँ हमने देखा था ..समय नया खेल खेला रहा है बाबा ..अब ओल्हा पाती से डालियां टूटने पर दर्द हो ऐसे लोग नही ..अब तो खड़े पेड़ कट रहे .काला चश्मा लगाकर हम शहरी हो गए बाबा ..पर कैद आँखों में लहलहाती है सत्ती के खेत वाला गेहूं का धान ..बाजरे की बाली ..
आम की कोयल बोलती है बाबा तब शहर का ट्रेफिक जाम हो जाता है ..

Sunday, April 21, 2013

ये क्या जगह है दोस्तों

१ 


लड़की फटे चिटे कपड़ों में नही 
फटे चिटे शरीर में 
घूम रही है 

जी रही है शायद 
मर भी सकती है 

उसकी लाश के आस पास 
आंसुओं के खूब सारे 
कैक्टस उगे है 

अब उन जहरीले काँटों में 
दो गुलाबी पत्ते मुस्करा रहे हैं 

तुममे से ही कोई एक 
फिर चिर डालेगा उसे .....



२ 


नोंच लो इस डोर से 
उस डोर से 
नोंच लो इस छोर से उस छोर से 

इस गली की या 
शहर के पार की हूँ 
कट गई या काट दी जाऊं किसी दिन 
एक लूटो या जमाना साथ ले लो 

मैं किसी भी उम्र में 
एक देंह हूँ बस ..तुम शिकारी 

रंग के चिथड़े उड़ा कर 
सांस भी लेते हो कैसे ?

Friday, April 19, 2013

एक लेखक का एकांत _5

आज भूख नही ...मन नही खाने का ..अच्छा क्या बना है ?नही नही ये तो बिलकुल नही खाना ...ऐसे सारे नखरे सिर्फ तुम उठाती थी ..कितने विकल्प जोड़ती ..ये खा लो ..एक टुकड़ा खा कर तो देखो ..देखो मामा कौर है इनकार नही करते ..दो मिनट में नमकीन पुडी बना देते हैं ..अचार के साथ खा कर देखना ..

.तुमको क्या हो जाता ..कुछ न कुछ खिला कर ही मानती ..तुम्हारी नाभि से जोड़कर ..अपने को निचोड़कर ..तुमसे हममे सब कुछ चला जाता ..शादी के बाद हम एकदम से औरत बन जाते हैं तुम्हारे जैसे ..अब हम नही कहते की मन नही खाने का ..पता है कही कोई जबाब नही बचा ..कहीं कोई विकल्प नही ..नही कोई खिलायेगा मामा वाला कौर ..

बेटा पढाई कर रहा ..पति नौकरी करने ..मन अनमना हो रहा है ..कुछ खाने का मन नही

..परदे के पिछे छुपी तुम आवाज देती हो ...आज रामनवमी है ..त्यौहार का दिन ऐसा नही करते ...दाल की पुड़ी पसंद है ना ..आओ खिलाते हैं ..

मैं लगातार उस निले परदे के पार झाकने की कोशिश में हूँ ...बादल है ..कुछ दिखाई नही देता ..तुम भी नही ..आवाज का आँचल बार बार ढँक लेता है मुझे ..मेरे मुँह में लगा जूठा खाना पोछकर चली गई तुम ..तुम कभी नही रुकी ..कभी भी नही ना ...

Thursday, April 18, 2013

मज़बूरी ..एक रंग ऐसा भी


लालटेन पेट्रोमेक्स के
पिले उजले रोशनी में
लड़की लट्टू की तरह
नाच रही है

तेज महक का पावडर
लाल परांदे में
उलझ सुलझ रही
आप ही आप

चोली पर उड़ता गिरता दुपट्टा
"रेशमी सलवार कुरता जाली का .....
पेड़ के पंछी दुबके हैं
बसवारी सुन्न सन्नाटा
१० ५० के नोट के साथ
जवान आवाजे हवा में
झूम रहीं है

सिवान जिला का मुन्नी बैंड बड़ा फेमस है
बामहन टोली तुरह पट्टी मिसरौरीसे से  जमा हुए हैं लोग

नाच बैंड की धुन पर पगड़ी हवा में
लहरा कर नचनियां का दुपट्टा अपने मुह पर ओढ़कर
किसन चाचा भूल रहे हैं अपना अकेलापन
बंसी भैया के जवान बहन की शादी
सूखे से बंजर पड़ी जमीं
जवान बुवा का विधवा होना
टूटे खपरैल की मरम्मत
सब दुःख पानी ..जरा सी देर को जी रहे हैं सब

उधर नाच एकदम तेजी पर ..आँखों से तुमको शराबी बना दूँ ..
लड़की थक के चूर ..सवेरा होने को है ..नाच ख़तम
पावडर की महक ख़तम सूखी लाली ..लड़की के शरीर पर
रेंगती है हजारों बिच्छू सी उंगलियाँ ..उबकाई आती है

गाँव वालों के दुखो के गहरे कुवों में बिन पानी के झूल जाती है
खाली बाल्टी ..मन में तेज नाचती है रात वाली लड़की
सबकी अपनी अपनी मज़बूरी ..जीने का सहारा

रात भर जली लालटेन के शीशे काले पड गए है अब ...

Wednesday, April 17, 2013

एक लेखक का एकांत _4

अचानक आप दोस्त बन जाते हैं .और लगातार आपकी आवाज आस पास बनी रहती है .कभी भी कहीं भी ...क्या कर रही हो ?खाना खा लिया?धूप है बाहर मत जाना ..आज कौन सा रंग पहना ..तुम्हारे शहर में मेला लगा ..भीड में खो जाने का डर तुम्हारे शहर को है ..मैं एक ऐसे रिश्ते के साथ चुपचाप बह रही हूँ..

मेरा दुःख उसका ..मेरे गाने की मिठास से मीठी हो गई उसके सुबह की चाय ..उसे नही पता कई बार कितनी विकट स्थितियों में मैंने उससे बात की ..वजह की वो उदास न हो जाए ..उसने मेरे दुःख में मेरा होकर उपवास रखा ..मेरी मुस्कराहट में भींग कर अपने दिन की शुरुवात की .अब अधिकार से बातें कही जाने लगी ..की तुम्हें नही तो किसे बताऊ ....

मैं लगातार समझ रही हूँ ..तुम्हारा होना ..अपना खोना ..की अचानक ..इस रूट की सभी लाइने व्यस्त है के तर्ज पर ..तुम्हारा शहर दूसरी तरफ रुख कर लेता है .तुम्हारी आवाज दूर से भी नही आती ..अचानक उग आये है तमाम कोमल पौधे तुम्हारे आस पास जिसकी परवरिश करनी है तुम्हें ..मैं धूप में हूँ ..मेरे चुप्पी में टूटती है एक और चुप्पी ..सब बेआवाज ..

मैं वजह जानने की कोशिश में शिकायत करती हूँ ..तुम निर्णय सुनाते हो ...लगातार काम है मेरे पास व्यस्त हूँ ...

मौसम भी दस्तक देकर बदलता है साहेब ..चलो कोई बात नही ..

कुछ लोग पैदा होते है दूसरों का एकांत पाटने के लिए ..दर्द सोखने के लिए ..मेरे गाने में मिठास है .मेरी आँखें खूब छोटी पर गहरी है ...बात में नमक है ..तुमने अपने उदास दिनों में इन्हें चादर की तरह ओढा ..हां अब गर्मी है ..उतार फेकों ..चादरे यू भी ओढ़ी मोड़ी और सुखाई जाती है ..

Tuesday, April 16, 2013

कुछ रंग ..कविता

उम्मीद 


बुझ रहे जंगल 
जल रही है नदी 

प्यास से बिलखती धरती 

असहाय होते समय को 
ढाढस बंधाती

गहरे हुए कोटरों से झांकती 
किसान की ..बादलों पर 
टिकी आँखें ....



ख़ामोशी 


चमचमाती थाली में 
चेहरा देखा 
और बुदबुदाई 

तुम खामोश हो 
हम कर दिए जाते हैं 

थाली में उभरी एक जोड़ी 
आँखें धुंधला गई 

मैंने सूखे कपडे से गीली थालियों को 
सूखा कर सजा दिया ...




मोती 


समन्दर के 
रेतीले विस्तार पर 
पड़े कुछ मुर्दा नामों को 
लहरें गले लगाती हैं 

और वो सीपियों में 
मोतियों से 
चमक उठते ...




माँ


तेरे पल्लू में 
एक गाँठ बंधी होती 
उस गाँठ में हमारी 
खुशियाँ 

दुधिया आसमान को 
हम उचक कर पकड लेते 
और तुम्हारे आँचल में 
छुपा देते थे 

फिर एक दिन तेज आंधी में 
उड़ गया फडफडाता आँचल 

समय के उघडे बदन पर 
खूब जखम मिले 
सब छुपा लिया ना तुमने ?




बसंत 



हर तिनके में 
फडफडाता है 
पतझड़ 

बसंत पीसता है 
दो पाटों के बीच 
समन्दर में लुप्त हो 
जाती है मीठी नदी 

सब जीते है मिलन के पल 
विछोह के बवंडर के साथ साथ ....




पानी 


तालाब में जिन्दा 
बची मछलियाँ 
अब पानी बचाएंगी 

उनकी बड़ी गोल 
आँखें 
बड़ी गहरी होती हैं .....


हार 


हरे दिखने वाले 
पेड़ की 

मजबूत दिखने वाली 
डाली से 

एक दिन 
सूखे पत्तो सी गिरूंगी 

समय से पहले हुई मौत 
की देंह में जिन्दा होगी 
छाँव सी हरी कोपलें 
उनकी खुली आँखों को 
धीरे से बंद कर देना 

वो मेरे साथ मरना चाहती हैं ...

Monday, April 15, 2013

एक लेखक का एकांत _3


मुझे अकेला छोड़ दो ....उस अकेलेपन में मेरी यादें पिजती है ..बड़े कोमल से फाहे उड़ते है आँखे एक नर्म

बिस्तर पर सो सी जाती हैं ..मुझे अकेला छोड़ दो की पहचान कर लूँ मैं अपनी अपने साथ ..आईने के उलझे

बालों को सुलझा लूँ ..पर घात लगी यादों का क्या करूँ ..किसी न किसी रास्ते आ कर टकरा जाती है ..मेरे आहत

होते मन पर तुम जाने अनजाने ही कीलें ठोकते हो ..मेरे दर्द को अकेला रहने दो ..वो रिसने के रास्ते तलाश

कर लेंगे ..मुस्कराहटों में दबी चीख मुझे सोने नही देती .....


सबके पास एक उदास खबर है ..सबने मुस्कराहट को कहीं गाड़ रखा है ..सब परेशां है ..वजहें अलग अलग

सबकी ...आप प्रेम लिखना चाहते है ..करना चाहते हैं पर धमाको के चिथड़े आपकी आँखों में लटके दिखते है ...

धीरे से दोस्त धोखा दे जाता है ..रेजकारी से आप छन छन कर बिखर जाते हो ...अब सुबह है ..टूट गए घोसलों

को देखकर गौरैया आवाजें कर रही है ...हमे दर्द सुनाई दे रहा है ..संवेदनशीलता हमे कई बार चैन लेने नही देती ..
आसमान का बदलता रंग देख कर भी दिल घबराता है ..ठीक है सब चलता है के तर्ज पर ..चलो कर लेते है

प्यार गा लेते है कोई गीत ..अपने को ठगना है ..अभी अभी आपको छोड़ कर गया दोस्त आपको जाने अनजाने

ठग गया ..अफ़सोस ....दोस्त होने की कोई शर्त नही होती ...अब जो मिला जैसा मिला ..खिलखिलाहट को

माचिस की डिब्बी में बंद कर दो ..और घिसते रहो तीलियाँ ...समन्दर जब उफन रहा हो ..तब उससे तेज

आवाज में चीख कर बोलो ..मुझे हंसने की वजह दो .....और समन्दर धीरे से आपके हाथ में वो बचपन वाली

नांव रख दे ..अब यहाँ से मुस्कराते हैं .

Sunday, April 14, 2013

एक लेखक का एकांत _2


आसमान का नीला रंग बड़ा सुहाना लगता था .बचपन में जिंदगी के सारे रंग चटकीले लगते थे .सिर्फ गुरु जी

की डांट से जो मोटे आंसू निकलते हमारे काजल से गाल काले हो जाते थे ..अब गाल गोरे बचे रहते है पर

आसमान सावंला हो जाता है ..महानगर की सातवीं मंजिल की एक जरा सी खुलने वाली खिड़की से जिंदगी

टिमटिमाती सी भी नही दिखती..जब बारिश थम जाती ..जरा धूप चमकती ..हम भागते हुए गाँव के बगीचे तक

जाते ..वही किसी दिशा में दिख जाता इन्द्रधनुष .ओह ..कितना करिश्माई होता वो पल ..अपनी कला की काँपी

में हम बड़े जतन से इन्द्रधनुष बनाते .वो मोम वाले रंग को घिस घिस कर ..


जिंदगी सिमट गई है ..फ़ोन के परदे पर दुनिया के सारे रंग आपके उँगलियों के इशारे नाचते है .बस माटी की

महक चली गई ..भाग कर दिशाओं को देखने की यात्रा ख़तम हो गई ..तालाब का हरा होना याद है ?जिसके

किनारे मकोय के जंगल होते थे ..अब किसी गूगल सर्च में हम नही होंगे ..बेर को अपनी फ्रोक में धरे ..राख पड़ी

ढेर से होरहा चुनने की तेजी अब किसी सर्च इंजन में नही ..वो जिंदगी के रंग थे ..असली ..खालिस ..बसवारी के

भूत ने सब लील लिया क्या ?

Saturday, April 13, 2013

एक लेखक का एकांत - 1





तुम हमे छोड़ कर नही जा सकती .....

खाली पड़ी देंह पर विलाप की सफ़ेद चादर परत दर परत पड़ती जाती है ...एक समय ऐसा भी की वियोग में हम रोते नही ..घर की सबसे सूनी 

दिवार की आग तापते है ..चौखट के आर पार होते दिन रात के सिरे पकड़ने की कोशिश करते है ..हाथ खाली ...अपने सबसे रंगीन कपड़ों को 

उदासी में सान कर घर के परदे लगा देते हैं ...

शोक में सबके अन्दर एक चीख जिन्दा है पर सब उसे मारते है ...सबसे दुखते कंधे पर हाथ धरते ही एक दर्द कच्चे मटके सा फूट पड़ता है 

...वेदना से दुखती है धरती की छाती ...आसमान की बाहों में सिसकती है आधी रात की असहाय देंह ...
तुम क्यों चली गई के समवेत स्वर की लकड़ी पर बिन कुछ कहे जल रही हो तुम ....