Tuesday, April 16, 2013

कुछ रंग ..कविता

उम्मीद 


बुझ रहे जंगल 
जल रही है नदी 

प्यास से बिलखती धरती 

असहाय होते समय को 
ढाढस बंधाती

गहरे हुए कोटरों से झांकती 
किसान की ..बादलों पर 
टिकी आँखें ....



ख़ामोशी 


चमचमाती थाली में 
चेहरा देखा 
और बुदबुदाई 

तुम खामोश हो 
हम कर दिए जाते हैं 

थाली में उभरी एक जोड़ी 
आँखें धुंधला गई 

मैंने सूखे कपडे से गीली थालियों को 
सूखा कर सजा दिया ...




मोती 


समन्दर के 
रेतीले विस्तार पर 
पड़े कुछ मुर्दा नामों को 
लहरें गले लगाती हैं 

और वो सीपियों में 
मोतियों से 
चमक उठते ...




माँ


तेरे पल्लू में 
एक गाँठ बंधी होती 
उस गाँठ में हमारी 
खुशियाँ 

दुधिया आसमान को 
हम उचक कर पकड लेते 
और तुम्हारे आँचल में 
छुपा देते थे 

फिर एक दिन तेज आंधी में 
उड़ गया फडफडाता आँचल 

समय के उघडे बदन पर 
खूब जखम मिले 
सब छुपा लिया ना तुमने ?




बसंत 



हर तिनके में 
फडफडाता है 
पतझड़ 

बसंत पीसता है 
दो पाटों के बीच 
समन्दर में लुप्त हो 
जाती है मीठी नदी 

सब जीते है मिलन के पल 
विछोह के बवंडर के साथ साथ ....




पानी 


तालाब में जिन्दा 
बची मछलियाँ 
अब पानी बचाएंगी 

उनकी बड़ी गोल 
आँखें 
बड़ी गहरी होती हैं .....


हार 


हरे दिखने वाले 
पेड़ की 

मजबूत दिखने वाली 
डाली से 

एक दिन 
सूखे पत्तो सी गिरूंगी 

समय से पहले हुई मौत 
की देंह में जिन्दा होगी 
छाँव सी हरी कोपलें 
उनकी खुली आँखों को 
धीरे से बंद कर देना 

वो मेरे साथ मरना चाहती हैं ...

Monday, April 15, 2013

एक लेखक का एकांत _3


मुझे अकेला छोड़ दो ....उस अकेलेपन में मेरी यादें पिजती है ..बड़े कोमल से फाहे उड़ते है आँखे एक नर्म

बिस्तर पर सो सी जाती हैं ..मुझे अकेला छोड़ दो की पहचान कर लूँ मैं अपनी अपने साथ ..आईने के उलझे

बालों को सुलझा लूँ ..पर घात लगी यादों का क्या करूँ ..किसी न किसी रास्ते आ कर टकरा जाती है ..मेरे आहत

होते मन पर तुम जाने अनजाने ही कीलें ठोकते हो ..मेरे दर्द को अकेला रहने दो ..वो रिसने के रास्ते तलाश

कर लेंगे ..मुस्कराहटों में दबी चीख मुझे सोने नही देती .....


सबके पास एक उदास खबर है ..सबने मुस्कराहट को कहीं गाड़ रखा है ..सब परेशां है ..वजहें अलग अलग

सबकी ...आप प्रेम लिखना चाहते है ..करना चाहते हैं पर धमाको के चिथड़े आपकी आँखों में लटके दिखते है ...

धीरे से दोस्त धोखा दे जाता है ..रेजकारी से आप छन छन कर बिखर जाते हो ...अब सुबह है ..टूट गए घोसलों

को देखकर गौरैया आवाजें कर रही है ...हमे दर्द सुनाई दे रहा है ..संवेदनशीलता हमे कई बार चैन लेने नही देती ..
आसमान का बदलता रंग देख कर भी दिल घबराता है ..ठीक है सब चलता है के तर्ज पर ..चलो कर लेते है

प्यार गा लेते है कोई गीत ..अपने को ठगना है ..अभी अभी आपको छोड़ कर गया दोस्त आपको जाने अनजाने

ठग गया ..अफ़सोस ....दोस्त होने की कोई शर्त नही होती ...अब जो मिला जैसा मिला ..खिलखिलाहट को

माचिस की डिब्बी में बंद कर दो ..और घिसते रहो तीलियाँ ...समन्दर जब उफन रहा हो ..तब उससे तेज

आवाज में चीख कर बोलो ..मुझे हंसने की वजह दो .....और समन्दर धीरे से आपके हाथ में वो बचपन वाली

नांव रख दे ..अब यहाँ से मुस्कराते हैं .

Sunday, April 14, 2013

एक लेखक का एकांत _2


आसमान का नीला रंग बड़ा सुहाना लगता था .बचपन में जिंदगी के सारे रंग चटकीले लगते थे .सिर्फ गुरु जी

की डांट से जो मोटे आंसू निकलते हमारे काजल से गाल काले हो जाते थे ..अब गाल गोरे बचे रहते है पर

आसमान सावंला हो जाता है ..महानगर की सातवीं मंजिल की एक जरा सी खुलने वाली खिड़की से जिंदगी

टिमटिमाती सी भी नही दिखती..जब बारिश थम जाती ..जरा धूप चमकती ..हम भागते हुए गाँव के बगीचे तक

जाते ..वही किसी दिशा में दिख जाता इन्द्रधनुष .ओह ..कितना करिश्माई होता वो पल ..अपनी कला की काँपी

में हम बड़े जतन से इन्द्रधनुष बनाते .वो मोम वाले रंग को घिस घिस कर ..


जिंदगी सिमट गई है ..फ़ोन के परदे पर दुनिया के सारे रंग आपके उँगलियों के इशारे नाचते है .बस माटी की

महक चली गई ..भाग कर दिशाओं को देखने की यात्रा ख़तम हो गई ..तालाब का हरा होना याद है ?जिसके

किनारे मकोय के जंगल होते थे ..अब किसी गूगल सर्च में हम नही होंगे ..बेर को अपनी फ्रोक में धरे ..राख पड़ी

ढेर से होरहा चुनने की तेजी अब किसी सर्च इंजन में नही ..वो जिंदगी के रंग थे ..असली ..खालिस ..बसवारी के

भूत ने सब लील लिया क्या ?

Saturday, April 13, 2013

एक लेखक का एकांत - 1





तुम हमे छोड़ कर नही जा सकती .....

खाली पड़ी देंह पर विलाप की सफ़ेद चादर परत दर परत पड़ती जाती है ...एक समय ऐसा भी की वियोग में हम रोते नही ..घर की सबसे सूनी 

दिवार की आग तापते है ..चौखट के आर पार होते दिन रात के सिरे पकड़ने की कोशिश करते है ..हाथ खाली ...अपने सबसे रंगीन कपड़ों को 

उदासी में सान कर घर के परदे लगा देते हैं ...

शोक में सबके अन्दर एक चीख जिन्दा है पर सब उसे मारते है ...सबसे दुखते कंधे पर हाथ धरते ही एक दर्द कच्चे मटके सा फूट पड़ता है 

...वेदना से दुखती है धरती की छाती ...आसमान की बाहों में सिसकती है आधी रात की असहाय देंह ...
तुम क्यों चली गई के समवेत स्वर की लकड़ी पर बिन कुछ कहे जल रही हो तुम ....