Friday, April 19, 2013

एक लेखक का एकांत _5

आज भूख नही ...मन नही खाने का ..अच्छा क्या बना है ?नही नही ये तो बिलकुल नही खाना ...ऐसे सारे नखरे सिर्फ तुम उठाती थी ..कितने विकल्प जोड़ती ..ये खा लो ..एक टुकड़ा खा कर तो देखो ..देखो मामा कौर है इनकार नही करते ..दो मिनट में नमकीन पुडी बना देते हैं ..अचार के साथ खा कर देखना ..

.तुमको क्या हो जाता ..कुछ न कुछ खिला कर ही मानती ..तुम्हारी नाभि से जोड़कर ..अपने को निचोड़कर ..तुमसे हममे सब कुछ चला जाता ..शादी के बाद हम एकदम से औरत बन जाते हैं तुम्हारे जैसे ..अब हम नही कहते की मन नही खाने का ..पता है कही कोई जबाब नही बचा ..कहीं कोई विकल्प नही ..नही कोई खिलायेगा मामा वाला कौर ..

बेटा पढाई कर रहा ..पति नौकरी करने ..मन अनमना हो रहा है ..कुछ खाने का मन नही

..परदे के पिछे छुपी तुम आवाज देती हो ...आज रामनवमी है ..त्यौहार का दिन ऐसा नही करते ...दाल की पुड़ी पसंद है ना ..आओ खिलाते हैं ..

मैं लगातार उस निले परदे के पार झाकने की कोशिश में हूँ ...बादल है ..कुछ दिखाई नही देता ..तुम भी नही ..आवाज का आँचल बार बार ढँक लेता है मुझे ..मेरे मुँह में लगा जूठा खाना पोछकर चली गई तुम ..तुम कभी नही रुकी ..कभी भी नही ना ...

1 comment:

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