चलिए करीमा के साथ... हमारे ही गाँव के उत्तर में उसका घर है ..घर क्या चार जर्जर दिवारों का एक ढांचा ...उसी में रहता है करीमा ..और सच जानिये तो रहता ही कहाँ है ...सारा दिन तो गाँव के लोगों की सेवा टहल में बीत जाता है समय ...मुंह अँधेरे घास की मशीन से चर्र मर्र की आवाजों के साथ उसका आगमन हो जाता है ....
पर कहानी बस हम तक सिमित है ..करीमा हमारे लिए जादूगर था ..उसके पास तरह तरह के गाने थे ..हमरा के जानी ना सिपाही जी ...ए दुल्हिन सपना में केकरा से भेटेलु......और हम सब का फेवरेट गाना ...ए डागदर बाबू बेमार भैल बकरी ...बस इस गाने को गाते गाते करीमा गाँव के अहर डहर के रास्ते हमें पूरा गाँव घुमाता..हम पूरी भक्ति से उसके पीछे ये गाना जोर जोर से गाते ..बगीचे की सबसे ऊँची डाली पर पत्तो के पीछे छुपा है एक पका आम करीम सरपट ऊपर ..हमारे मुंह में आम के रस निचोड़ता..हमारी पेंसिल को अपने पास रखे तेज छुरी से एकदम नुकीला बना देता ..हमारी चोटी कस के बाँध देता ..जल्दी से सबके हाथ मुंह धुला देता .
.तब कुवें पर बाल्टी डोरी सब आने जाने वालों का प्यास बुझाती ...एक लोटा में मुंह लगा कर जोर से अपना नाम गोहराता..हमें बताता सौ सौ लोगों की आवाजें पुकारती हैं उसे पलट कर ...सब जादू ना करीमा ?चाची लोगों की सतरंगी टिकुली के लिए वही लाता गोंद ना जाने कौन से पेड़ से इकठ्ठा कर के ....बाबा के गमछे को धोती को इस पेड़ से उस पेड़ में बांधकर पल भर में सुखा लाता..जादू ना करीमा?
पर गाँव के चौपाल पर जब बच्चा चाचा निर्गुण गाते करीमा रो रो के हलकान हुआ जाता ..जब रामायण के बनवास को पंडित जी बांचते करीमा बेचैन हो जाता ....हमे तो कभी ना समझ में आया करीमा की जिंदगी में कोई तकलीफ भी है ..हमेशा दूसरों के लिए काम करते रहने वाला करीमा अनाथ है ..बाबा ने बताया ..माँ बाप बचपने में ही मर गये ..छोटा जात ..इधर उधर काम टहल करते रहता है ...उसके एकांत की पगडंडियों पर हमारा बचपन भागता था ..हमारी आवाजों की पुकार में वो सारे रिश्ते जी लेता .
.अब देर रात अपने घर की दीवारों के बीच अजोरिया रात में वो अपने पैरों में पड़ी दरारों को मोम से भरता ...ना जाने कितनी चाचियों ने सटा के लगा ली अपनी टिकुली ..बच्चों ने जोर जोर से गाये उसके गाने ..घास की चर्र मर्र के अलार्म से उठा करती नई दुलहिनें ...कोहड़ा के लतर सा छाया रहा करीमा बाबा के खपरैल पर ...एकदम से उसके मरने की खबर आई ..गाँव के उत्तर टोला के कुवां में लाश मिली ..करीमा था ....
मुझे लगा मैं जानती थी उसके मरने का कारण ..पहले क्यों ना बता दिया ...ये कैसा अपराधबोध दे गया करीमा ..तू कुवां पर रात काहे गया मुझे पता है ...तूने अपने नाम की आवाज लगाईं ना ..और उन हज़ार हज़ार आवाजों ने पलट कर तुझे पुकारा ..तू चला गया उनके पास .....
किनारे एक लोटा लुढका पड़ा हवा से इधर उधर डोल रहा है ..अन्दर से चीख पुकार मची है ..अकेलापन अकेले ही मारता है हमें ..अनजान आवाजों में अपनों की खोज ..समय इशारे क्यों नही करता ?? करीमा तू जादूगर नही था .................माफ़ कर दे ...
मुंह में उसी मीठे आम की चट चट ..एकांत की कहानी ...
पर कहानी बस हम तक सिमित है ..करीमा हमारे लिए जादूगर था ..उसके पास तरह तरह के गाने थे ..हमरा के जानी ना सिपाही जी ...ए दुल्हिन सपना में केकरा से भेटेलु......और हम सब का फेवरेट गाना ...ए डागदर बाबू बेमार भैल बकरी ...बस इस गाने को गाते गाते करीमा गाँव के अहर डहर के रास्ते हमें पूरा गाँव घुमाता..हम पूरी भक्ति से उसके पीछे ये गाना जोर जोर से गाते ..बगीचे की सबसे ऊँची डाली पर पत्तो के पीछे छुपा है एक पका आम करीम सरपट ऊपर ..हमारे मुंह में आम के रस निचोड़ता..हमारी पेंसिल को अपने पास रखे तेज छुरी से एकदम नुकीला बना देता ..हमारी चोटी कस के बाँध देता ..जल्दी से सबके हाथ मुंह धुला देता .
.तब कुवें पर बाल्टी डोरी सब आने जाने वालों का प्यास बुझाती ...एक लोटा में मुंह लगा कर जोर से अपना नाम गोहराता..हमें बताता सौ सौ लोगों की आवाजें पुकारती हैं उसे पलट कर ...सब जादू ना करीमा ?चाची लोगों की सतरंगी टिकुली के लिए वही लाता गोंद ना जाने कौन से पेड़ से इकठ्ठा कर के ....बाबा के गमछे को धोती को इस पेड़ से उस पेड़ में बांधकर पल भर में सुखा लाता..जादू ना करीमा?
पर गाँव के चौपाल पर जब बच्चा चाचा निर्गुण गाते करीमा रो रो के हलकान हुआ जाता ..जब रामायण के बनवास को पंडित जी बांचते करीमा बेचैन हो जाता ....हमे तो कभी ना समझ में आया करीमा की जिंदगी में कोई तकलीफ भी है ..हमेशा दूसरों के लिए काम करते रहने वाला करीमा अनाथ है ..बाबा ने बताया ..माँ बाप बचपने में ही मर गये ..छोटा जात ..इधर उधर काम टहल करते रहता है ...उसके एकांत की पगडंडियों पर हमारा बचपन भागता था ..हमारी आवाजों की पुकार में वो सारे रिश्ते जी लेता .
.अब देर रात अपने घर की दीवारों के बीच अजोरिया रात में वो अपने पैरों में पड़ी दरारों को मोम से भरता ...ना जाने कितनी चाचियों ने सटा के लगा ली अपनी टिकुली ..बच्चों ने जोर जोर से गाये उसके गाने ..घास की चर्र मर्र के अलार्म से उठा करती नई दुलहिनें ...कोहड़ा के लतर सा छाया रहा करीमा बाबा के खपरैल पर ...एकदम से उसके मरने की खबर आई ..गाँव के उत्तर टोला के कुवां में लाश मिली ..करीमा था ....
मुझे लगा मैं जानती थी उसके मरने का कारण ..पहले क्यों ना बता दिया ...ये कैसा अपराधबोध दे गया करीमा ..तू कुवां पर रात काहे गया मुझे पता है ...तूने अपने नाम की आवाज लगाईं ना ..और उन हज़ार हज़ार आवाजों ने पलट कर तुझे पुकारा ..तू चला गया उनके पास .....
किनारे एक लोटा लुढका पड़ा हवा से इधर उधर डोल रहा है ..अन्दर से चीख पुकार मची है ..अकेलापन अकेले ही मारता है हमें ..अनजान आवाजों में अपनों की खोज ..समय इशारे क्यों नही करता ?? करीमा तू जादूगर नही था .................माफ़ कर दे ...
मुंह में उसी मीठे आम की चट चट ..एकांत की कहानी ...
No comments:
Post a Comment