Tuesday, December 3, 2013

लागा झुलनियाँ क धक्का ...

कभी तुमपे कभी हालात पे रोना आया..बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया ...

बाभन टोला के छत से आसमान जरा नजदीक दिखाई देता ...बड़ी दूर नाच की आवाज हवा में तैरती सी छत पर रुक जाती..."लागा झुलनियाँ क धक्का बलम कलकत्ता पहुच गए "बुआ देर रात तक जागती दूर से आ रही मध्धिम पड़ती रोशनी की एक डोर उनतक पहुचती..बुआ वही थामे ना जाने कौन दुनियां में विचरती..बुदबुदाती ..अपने लम्बे बालों में कटोरी भर तेल मलती ..और बिखरी सी सो जाती ...

सबकी लाडली रहीं बुआ ..जो मांगती आ जाता ..शहर से आया कपडा सिलाती..ऊँची एडी का चप्पल भी मंगावती शहर से ..नये फैशन का बैग ..और रेशम के पक्के रंगों का धागा... ....अब गाँव में लड़की के बड़े हो जाने का अपना पुराना तर्क हुआ करता ...शादी की सुगबुग पढाई का छुडवा दिया जाना..लड़के की तलाश ..घर का रंगरोगन ..और उस लड़की की विदाई जो अभी चहकती सी आपके आँगन में फर्गुदियाँ सी उछलती कूदती रही ...

बीस साल बड़े रहे अवधेश फूफा ...घर के बड़े ..अपना पक्का घर ..इकलौती संतान ..बड़ी मूंछ..तगड़ी काठी ..और इधर इत्ती सी जान की बुआ ..बिना किसी विरोध शादी हो गई ..बुआ के फ़िल्मी दुनियां वाली ढेरों पत्रिका पड़ी की पड़ी रह गई..जिसमे देखती रही बुआ अपना हीरो सा राजकुमार ...

हम बच्चे थे तब जब आँगन में अपनी पियरी में बुआ शादी के पीढ़े पर बैठी ..आँगन की सारी औरते फुसफुसाती सी कहती रही..बाप सामान दूल्हा खोज लाये बाबा ..घुघट की ओट से बुआ भी अपने दूल्हा को देख सकपका गई थी..बलि का बकरा ..मेरे गाँव की ये सबसे दुखद शादी थी ...जब पहली विदाई पर बुआ ने अपना विरोध जताया ..किसी ने उनकी नही सुनी..अगली साईंत आने तक बुआ चादर तकिया में फूल काढती रही..रोज शंकर जी को जल चढाती रही..कुआँ पर बैठकर घंटों अपनी सखियों को अपना दुखड़ा सुनाती..सारा दिन इधर उधर के घरों में जा के कॉपी भर गाना लिखती रहती..बन्ना बन्नी सोहर कजरी..चैता ..

विदाई का साईंत बन गया तारीख सुना दी ठाकुर मंदिर के पुजारी ने ..बुआ का झांपी सजाया जाने लगा..हल्दी लगाने वाली नाउन रोज़ आने लगी ...बुआ को जैसे बिच्छू घास छू गया...बड़ी बड़ी आँखों में दूर दूर तक सुखा पडा रहता ..गाने की कॉपी में आखिरी पन्नो पर विदाई गीत लिखती बुआ अपने खटिया से लग के रो पड़ती..अम्मा का आँखें क पुतरिया..भैया से जल्दी बुलाने की गुहार ..बाबा से आम का पेड़ मत काटने की मिन्नत करती बुआ.

.बैलगाड़ी पर एक कोने में सिसकती गाँव के उसी रास्ते से विदा हो रही थी..जिसपर अपना दुपट्टा फहराती अपनी सखियों के साथ खेत में मटर तोड़ती..कैरी खाती ..और नचनियां के याद किये गाने पर ठुमका लगाती ..."लागा झूलानिया क धक्का बलम कलकत्ता पहुच गये
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'..तेज खिलखिलाहट ...तेज रौशनी की किरण..उसकी डोरी थामे बुआ ..सारी रात जागती सी क्या बोलती थी...कोई कभी ना जाना ..बुआ के पेट पर लेटे बैठे हम खेलते रहे घुघुवा मामा उपजे धामा....हम अनजान थे बुआ ..कभी नही समझ पाए ..तुम वो राजा रानी की कहानी में उस बिचारी राजकुमारी का जीकर आते क्यों मन भींगा लेती..वो तुम ही थी ना ??

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