Monday, December 9, 2013

लेखक का एकांत

एक मछली थी ...पानी में फडफडाती सी...रेत पर तडफडाती सी ..जरा सी आँख में डबडब पानी .छोटे से पंख से पानी काटती ..फिसल कर संभलती..संभल कर चलती की फांस ली जाती ..दुखी हो जाती...

पानी का ओर छोर नापना था...उस कम्बखत डोर से बचना था ...अब जान बचे ना बचे ..कोई आखिरी इक्षा है तो बता दे ..मछली बोली उड़ना चाहती हूँ ..जंगल के ठीक ऊपर से ..सुना बड़ा घना होता है ..कोई खो जाए तो मिलता नही ..जानवरों से भरा है..अगर है तो ऐसा ..मुझे उड़ने दो...बचा जंगल रोने लगा ..अतीत की जड़ें भिगोने लगा..मछली की आवाज से सब चकित थे...पहले बस चमकती भर थी..जीने भर को जीती थी..अब बोलने भी लगी...

अच्छा एक बार भरी नदी में डूबना है ..नदियाँ रेत में समां गई रेत हवा के साथ उड़ गया...अब ? एक पूरा नीला आसमान ही दिखा दो ...तकलीफों के बादल छाये थे..कहते है दूर देश से पानी लाये थे..किसानों के आँख से बरसे ..पर हरी भरी धरती को तरसे ..किसी और एरिया ने खरीद लिया था उन्हें...मछली उदास हो गई ...

मछली की बिंधी देह से आसमान उतार लिया गया..उसके आँख की नदी में सूख गये सपने..इंसानी जंगल की भीड़ में तुम जानवर बने ..मछली ने बोलना बंद नही किया..सुना बड़े तेवर है..जख्मी हो तो पानी लाल हो जाता है..पर उम्मीदें आसमानी हैं इसकी ...बची हुई मछलियों को कम करने की होड़ में वो अपनी ताकत गँवा रहे हैं..और इंसानियत का नया इतिहास बना रहे हैं....

.एक मछली थी ...अब बिजली से चलती है..कटोरे भर पानी में ...सब मूक दर्शक....मुरझाये पत्तो का एकांत.. बसंत की आस ...

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