Monday, December 23, 2013

वही मैं वही तुम ..

दर्द को कूंट रही हूँ 
तकलीफों को पिस रही हूँ 
दाल सी पीली हूँ 
रोटी सी घूम रही हूँ 
गोल गोल 
तुम्हारे बनाये चौके पर 

जले दूध सी चिपकी पड़ी हूँ 
अपने मन के तले में 
अभी मांजने हैं बर्तन 
चुकाना है हिसाब
परदे बदलने हैं
आईना चमकाना है
बिस्तर पर चादर बन जाना है
सीधी करनी है सलवटें

बस पक गई है कविता
परोसती हूँ

घुटनों में सिसकती देह
और वही
चिरपरिचित तुम ...........

2 comments:

  1. बिस्तर पर चादर बन जाना है
    सीधी करनी है सलवटें
    amazing....:-))

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  2. बहुत सुंदर एवं गूढ़ रचना..सराहनीय.

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