Saturday, May 25, 2013

लेखक का एकांत _13

मैं तुमसे मिलना ही नही चाहती के तेवर को तुम समझते और नही आउंगी के सच को झुठलाती दिन के सबसे गरम समय में पैर पटकती उस उपेक्छित तालब की सीढियाँ उतर जाती ..तुम्हारी आँख की मुस्कराहट पानी में खिले एक्का दुक्का उन कमल के फूलों को कुछ और गहरे रंग जाती ..हाँ बोलो क्या बोलना है ? कुछ नही में वो सर हिला देता ..पता था ..नही आउंगी बोल कर मैं आ जाउंगी..कुछ नही बोलना है की चुप्पी को तोड़ने के लिए फिर मैं बात भी करुँगी...तुम्हारे इशारे में तुम्हारी कहानियाँ छुपी होती ..लाल आँखों में गई रात नींद नही आने की शिकायत ..पढ़ाई नही हो पा रही है के शिकन से तुम्हारे माथे पर पड़ता बल ..तुम्हारे चुप रहने से मैं बातें करती ढेरों तमाम ..तुम हाँ हूँ कर सब सुनते ..मेरे कलाई में पड़ी उस लोहे की चूड़ी को घुमाते रहते .

.तालाब का पानी इतना गरम की हाथ सिंक जाए .फिर भी उन बैगनी कमल के फूल की मुस्कराहट को नही चुराता कोई ..हम जितनी देर वहां होते सूखे पत्ते गिरते तेज हवा से तालाब के पानी पर झुर्रियां सी पड़ जाती ...हमें मौसम सिखाते हैं ..वो मेरी गुलाबी हथेलियों को अपने रूखे हाथो में कुछ देर पकड़ कर रखता ..मन के अन्दर के मौसम के बदल जाने का समय होता वो ..तुझे तेज धूप में आना पड़ता है ना मेरे लिए ..गाल तप से जाते ...हाँ तो..अब आगे से नही आउंगी ...बहोत गरमी है ..वो अपने कमीज के निचे रखी एक किताब निकाल कर मुझे देता ..तुम्हारे लिए ....आज ही लाइब्रेरी से ली चार दिन बाद लौटना होगा ...हम्म ..तो चार दिन बाद फिर आउंगी मैं यही ना ..चा..र ....दि.न ...आ जाना ना ................(झुलसाती गरमी में चन्दन सी यादें .. )

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