Thursday, May 9, 2013

एक लेखक का एकांत _7

कागजों पर लिखा सच तीर सा चुभा .पलकें बार बार झपकाई जो पढ़ा क्या सच है? .कागज धुलता रहा अक्षर कुछ और साफ़ दिखने के बजाय बुझने लगे .मंदिर की सीढियों पर बैठ गई .संभल लूँ तो आगे की सोचूं .मिलने के कितने गीत विछोह का मौन रुदन 

.जहाँ लगता है सब ख़तम हो गया सच वही से सब शुरू होता है .मेरी अगुलियों में फसी अंगूठी कुछ कस सी गई है जल्दी निकाल दूंगी .सूना दाग सा पडजाता है .कुछ रंगीन सपनों का साझा मेरी आखों में तैर रहा है वो भी बह जाएगा धीरे धीरे ..बजने वाले फ़ोन के सभी नम्बर अजनबी है .कही तुम्हारा नम्बर भी है रोकने की तमाम कोशिश की मैंने पर एक बार बस तुम्हारी आवाज सुन लूँ का मोह नही त्याग पाई ..यह नम्बर अस्थाई रूप से बंद है ....बड़ा धार था इसमे ..कलेजा कट गया ..

मन में एक जंगल है वीरान बस एक हरा पेड़ है जहाँ मैं और तुम बैठते थे ..तुम्हें पता है प्यार ही बचाएगा इस हरे को कुछ हरी पत्तियां गिर रही है उदास बेआवाज ..मैं अकेला होने से बड़ा डरती हूँ तुम भी जानते थे ..बेजान सी डगर है ..रास्ता भूल रही हु ..हाथ का कागज़ चिंदियों में तब्दील है .

..तुम्हारे भेजे अक्षरों की आग में कविता जल रही है ..कभी सुनना ये कहानी ...पहचनाने वालों में वो पेड़ भी थे जिसपर बंधे धागों में घुमती रही थी धरती गयारह चक्कर ..

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