Monday, May 6, 2013

एक लेखक का एकांत _6

नदी के सामने रहो ..कुछ ख्याल बहते हैं उसमे .कुछ उदासी गोते लगाती है .दुःख की छटपटाहट उसकी नन्हीं तरंगो में दिखती है .बनारस के घाट की सीढियों पर शाम की भीड़ में अपने लिए चुनी हुई अकेली सीढी पर हम अपनी जिंदगी से हारते जूझते कुछ देर यहाँ बिता देते ..नदी साथ है हम जितनी दूर देखते है रंग दिखाई देते है डोलती डोंगियों से टकराता दीया ..अपना रास्ता चुन लेता है .पांच डूबकी में धुल जाने वाले पाप, दान का पुण्य ,माथे का टिका, ललाट पर दिव्या चन्दन, गोरों की गिटपिट को पछाड़ते मल्लाहों के अल्हड किशोर,

महंगे कैमरों में कैद होती गरीबी.. खाली पड़ी थाली के सिक्के कोढ़ से खो गए हाथ पैरों वाले भिखारी सिंदूरी धोती में गंगा आरती करते गरिमामय पंडित ..आँखें जो देखना चाहती है वो द्रश्य है ..नदी को छूटे हम काँप जाते है या नदी तुम सोचो ..हैरान करते सवालों का जबाब है नदी के पास .अकेलेपन की गहरी उदासी में सोचो तो कहीं भी रहे तुम्हारी आँखें से निकल पड़ती है ..

जीवन औए मरण का संगम है यहाँ .चिताओं की ठंढी पड़ी राख जब नदी में तैरती है आचमन की अंजलि में भर जाती है कुछ अदृश्य उदासी ..तमाम लोगों ने मन्नतों की चुनरी चढ़ाई है ..पर कितने ही बुझ गए तुम्हारी गोद में ..मेरी उदास सीढियों से छप कर टकराती हो तुम ..एक सा दुःख ना ..एक सी उलझन ..बचेंगे तो बहते रहेंगे जिंदगी की रगों में जिंदगी बन ....

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